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अभिवृद्धि और विकास || Meaning of growth and development

अभिवृद्धि और विकास || Meaning of growth and development

अभिवृद्धि और विकास (growth and development)

अभिवृद्धि और विकास में अंतर / difference between growth and development

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नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेबसाइट   www.Bandana classes.com  पर । आज की पोस्ट में हम आपको " अभिवृद्धि और विकास (growth and development) " के बारे में बताएंगे तो इस पोस्ट को आप लोग पूरा पढ़िए।


अभिवृद्धि Growth-


मानव अंग के आकार ,भार, लंबाई एवं कार्य शक्ति में होने वाली वृद्धि को अभिवृद्धि growth कहते हैं। इस अभिवृद्धि को मापा जा सकता है।


अभिवृद्धि का स्वरूप मात्रात्मक होता है।


लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की वृद्धि की तीव्रता देखने मिलती है


फ्रैंक के अनुसार- "कोशिकीय गुणात्मक वृद्धि की अभिवृद्धि है।"


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विकास (Development)-


विकास एक प्रक्रिया है जो हमेशा चलती रहती है विकास में गतिशीलता ,क्रमबद्ध  ,पूर्व कथनीयता का गुण पाया जाता है।


मुनरो के अनुसार- विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जिसमें भ्रूणावस्था से लेकर प्रौणावस्था तक गुजरता है।


वुडवर्थ के अनुसार- जिस प्रकार उत्तम खेती के लिए उत्तम बीज व उत्तम भूमि दोनों का होना आवश्यक होता है उसी प्रकार बालकों की श्रेष्ठतम विकास के लिए वंशानुक्रम व वातावरण का होना अति आवश्यक है।


मानव विकास = वंशानुक्रम× वातावरण


                  D= H×E


मानव विकास के क्षेत्र-


1- शारीरिक विकास

2- मानसिक विकास

3- सामाजिक विकास

4- भाषाई विकास

5- सृजनात्मकता का विकास

6- संवेगात्मक विकास

7- चारित्रिक विकास

8- आर्थिक विकास 

9- राजनीतिक विकास

10- सौंदर्यात्मक विकास



वृद्धि या अभिवृद्धि से तात्पर्य शारीरिक संरचना या आकार में होने वाले परिवर्तनों से है। वृद्धि के परिणाम स्वरूप हमें जो परिणाम प्राप्त होते हैं उन्हें हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं माप सकते हैं तथा अन्य बालकों के साथ उसकी तुलना भी की जा सकती है।

    जबकि विकास एक प्रक्रिया है जो वृद्धि के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजन करना सिखाती है विकास वृद्धि के साथ-साथ लगातार चलता रहता है विकास का सबसे उच्चतम स्तर परिपक्वता अर्थात मैच्योरिटी होती है। इस बिंदु पर बालक के सभी विकास आकार पूर्ण हो जाते हैं।





अभिवृद्धि एवं विकास के सामान्य सिद्धांत-

(Principal of growth and development)


1- निरंतरता का सिद्धांत (principal of continuity)-


इस सिद्धांत के अनुसार वृद्धि एवं विकास सतत व निरंतर गति से आगे बढ़ते हैं वृद्धि कुछ समय के पश्चात एक स्थान पर आकर रुक जाती है जबकि विकास निरंतर गति से होता रहता है।


वृद्धि तथा विकास दोनों में समग्रता का भाव पाया जाता है अर्थात दोनों एक समान गति से आगे बढ़ते हैं इनमें कभी कोई आपस में परिवर्तन देखने को नहीं मिलता।


2- व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत (principal of individual difference )- 


व्यक्तिगत भिन्नता के सिद्धांत का संबंध वृद्धि व विकास से है इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी दो बालक रंग ,रूप, आकार बुद्धि सूची योग्यता व क्षमता के आधार पर कभी भी दूसरे बालक के समान नहीं होते इनमें परस्पर व्यक्तिगत भिन्नता देखने को मिलती है इस दृष्टिकोण से प्रत्येक बालक स्वयं में विशिष्ट या अनोखा होता है।


प्रायः एक ही माता-पिता की दो जुड़वां संतानों में भी व्यक्तिगत भिन्नता देखने को मिलती है।


शिक्षण प्रक्रिया में व्यक्तिगत भिन्नता के सिद्धांत को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है एक अध्यापक को मनोविज्ञान का ज्ञान होना इसलिए अनिवार्य है ताकि वह बालकों की रूचि योग्यता व क्षमता को पहचान कर उन्हें उसी के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर प्रदान कर सकें। शिक्षण कार्य प्रारंभ करते समय एक अध्यापक को सर्वाधिक ध्यान बालकों की व्यक्तिगत भिन्नता की ओर ही देना चाहिए।


3- निश्चित व पूर्व कथनीय प्रतिरूप का सिद्धांत (principal of definite and predictable patter)-


इस सिद्धांत के अनुसार संसार में जितनी भी प्रजातियां पाई जाती हैं। उन सभी का वृद्धि व विकास पहले से ही निर्धारित सिद्धांतों व मान्यताओं के आधार पर होता है इसी क्रम में कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मानव का विकास मस्तकोधमुखी / निरस्त विकास (cephalocaudial development) पर आधारित होता है।


इसके अनुसार विकास की प्रक्रिया इस पर आधारित होता है इसके अनुसार विकास की प्रक्रिया सिर से लेकर पैरों तक होता है


किंतु कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बालक का विकास समीप्यता के सिद्धांत  (proximo development) पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार विकास की प्रक्रिया केंद्र से प्रारंभ होकर दूरस्थ स्थित अंगों की ओर होती है। या शरीर के मध्य भाग से प्रारंभ होकर बाहरी अंगों की ओर होता है।





4- परिमार्जित का सिद्धांत (principal of modification)-  


इस सिद्धांत के अनुसार यदि सही दिशा में कोई सार्थक प्रयास किया जाए तो वृद्धि तथा विकास दोनों में परिमार्जन संभव होता है इसी सिद्धांत के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया में आधुनिक व मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है।


5- समान प्रतिमान का सिद्धांत (principal of equal inodels)-


सिद्धांत के अनुसार संसार में जितनी भी प्रजातियां पाई जाती हैं। वे सभी प्रजातियां अपने ही समान वंशानुक्रम को जन्म देती हैं।


जैसे- मानव की संतान मानव तथा पशु पक्षियों की संतान पशु पक्षी ही होती है।


6- समन्वय व एकीकरण का सिद्धांत (principal of integration)-


इस सिद्धांत के अनुसार जैसे-जैसे बालक में वृद्धि व विकास होता है। बालक अपने शरीर के समस्त अंगों के साथ समायोजन करने लगता है।


7- वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत (principal of interaction between heredity and environment)-


इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी बालक का वृद्धि व विकास वंशानुक्रम तथा वातावरण इन दोनों की सामान अंतः क्रिया पर निर्भर करता है केवल अच्छे वंशानुक्रम या केवल अच्छे वातावरण से बालक का वृद्धि और विकास संभव नहीं होता है।


8- चक्राकार प्रगति का सिद्धांत - 


इस सिद्धांत के अनुसार वृद्धि तथा विकास सदैव एक सीधी हो रेखीय गति से नहीं होता है बल्कि उसमें चक्राकार प्रगति पाई जाती है।


9- फ्रायड का मनोलैगिक विकास सिद्धांत- 


फ्राइड के अनुसार यौन जन्म से ही बालक में पाया जाता है। वे सभी क्रियाएं जिन्हें प्राणी स्वेच्छा से करता है। तथा जिन से उसे आनंद मिलता है यौन के अंतर्गत रखी जाती हैं।

यौन के विकास में libido की भूमिका महत्वपूर्ण होती है इस सिद्धांत को पंच अवस्था सिद्धांत कहते हैं।





1- मुखावस्था (oral stage)-  0 से 1 वर्ष


इस अवस्था में कामुकता का क्षेत्र मुख होता है बच्चा अंगूठा चूसकर ,स्तनपान करके ,बलबलाकर यौन संतुष्टि की अनुभूति करता है।


2- गुदावस्था (2 से 3 वर्ष)-‌


इस अवस्था में कामुकता का क्षेत्र मुख से हटकर गुदा क्षेत्र में आ जाता है शिशु मलमूत्र त्यागने में लैंगिक सुख का अनुभव करता है।


3- लैंगिक अवस्था (4 से 5 वर्ष)-


इस अवस्था में कामुकता का क्षेत्र बालक के जनन रंग होते हैं बालक odipus व Electra gland से प्रभावित होता है यह मनोग्रंथियां बाल्यावस्था में पहुंचने के साथ ही स्वत: नष्ट हो जाते हैं।


4- कामसुप्तावस्था (6 से 12 वर्ष)-


इस अवस्था में बालक की काम प्रवृत्ति सुसुप्त अवस्था में रहती है क्योंकि उसका ध्यान शिक्षा ,खेलकूद ,चित्रकारी इत्यादि क्रियाओं में अधिक केंद्रित होता है।

अवस्था में लड़के लड़कों के साथ वह लड़कियां लड़कियो के साथ ही खेलना पसंद करते हैं।


5- जननांगी अवस्था (13 वर्ष से अधिक)-


इस अवस्था में जनन अंगों के परिपक्वता के कारण किशोर व किशोरियों विषम लिंगी आकर्षण बढ़ता है प्राया यह अवस्था जीवन पर्यंत बनी रहती है।


Note- विकास की किसी भी अवस्था में अत्यधिक दबाव के कारण बच्चे का स्थरीकरण fixation हो सकता है अर्थात एक आरंभिक अवस्था तक विकास रुक जाता है यह पूर्व की अवस्था में भी लौट सकता है।



अभिवृद्धि और विकास में अंतर



अभिवृद्धि growth

विकास development

इसका स्वरूप वाह्य होता है।

इसका स्वरूप आंतरिक + वाह्य होता है।

अभिवृद्धि कुछ समय बाद रुक जाती है।

विकास जीवन पर्यंत चलता है।

अभिवृद्धि में क्रम, दिशा, लक्ष्य नहीं होता।

विकास में क्रम, दिशा ,लक्ष्य निश्चित होता है।

अभिवृद्धि का सीधा मापन संभव होता है।

विकास का सीधा मापन संभव नहीं होता है।

अभिवृद्धि का संबंध केवल परिमाणात्मक परिवर्तन से है।

विकास का संबंध गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों से होता है।

अभिवृद्धि का स्वरूप प्रायः भौतिक होता है।

विकास का स्वरूप मनोवैज्ञानिक होता है।



विकास को प्रभावित करने वाले कारक-


1- आनुवंशिकता /वंशानुक्रम 

2- वातावरण 

3- रोग व चोट

4- बुद्धि



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