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रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश || Rashmirathi Khand Kavya in Hindi

रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश || Rashmirathi Khand Kavya in Hindi

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                      रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश

नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेबसाइट www.Bandana classes.com पर । आज की पोस्ट में हम आपको "रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश एवं कथावस्तु (rashmirathi khand kavya ka saransh, kathavastu)" के बारे में बताएंगे तो इस पोस्ट को आप लोग पूरा पढ़िए।

रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश | Rashmirathi Khand Kavya Ka Saransh 

रश्मिरथी 


प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के प्रथम सर्ग की कथा (सारांश) अपने शब्दों में लिखिए।


उत्तर - प्रथम सर्ग - कर्ण का शौर्य प्रदर्शन


प्रथम सर्ग के आरंभ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुंती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुंती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिए कुंती ने लोक लाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने। एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव और पांडव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाढ़ विद्या पर मुक्त हो गए, किंतु तभी धनुष- बाण लिए कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उस ने अर्जुन को द्वंद युद्ध के लिए चुनौती दी- 


आंख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार।

फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।।


कर्ण की इस चुनौती से संपूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह जाती है और अभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत- पुत्र बतलाया।

फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भाव-विह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की दुःखद विडम्बना पर मन मसोसती और लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुंचती है।


प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग की क्या विशेषता है? उदाहण सहित लिखिए।


अथवा 


'रश्मिरथी' के तृतीय सर्ग में कृष्ण और कर्ण के संवाद में दोनों के चरित्र की कौन सी प्रमुख विशेषताएं प्रकट हुई है? स्पष्ट कीजिए।


उत्तर - तृतीय सर्ग - कृष्ण संदेश तथा कृष्ण कर्ण संवाद


कौरवों से जुए में हारने के कारण पांडवों को 12 वर्ष का वनवास तथा 1 साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा । 13 वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पांडव अपने नगर इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं। पांडवों की ओर से श्री कृष्ण कौरवों से संधि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर आते हैं। श्री कृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परंतु दुर्योधन ने संधि प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उनके श्री कृष्ण को ही बंदी बनाने का असफल प्रयास किया।


दुर्योधन के न मानने पर श्री कृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परंतु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो: क्योंकि तुम कुंती- पुत्र हो। अब तुम ही इस भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग पूर्वक पहुंचता है कि आप मुझे कुंती -पुत्र बताते हो। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति गोत्रहीन सूत- पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम रोम दुर्योधन का ऋणी है। 


फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को न बताना; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे श्रेष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज दुर्योधन को दे डालूंगा- 


धरती की तो है क्या बिसात? आ जाए अगर बैकुंठ हाथ।

उसको भी न्योछावर कर दूं, कुरुपति के चरणों पर धर दूं।।


इतना कहकर और श्री कृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है। यह शरीर की कथा से जहां हमें श्री कृष्ण के महान कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्ति संपन्न होने की विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है वही कर्ण के अंदर हमें सच्चे मित्र और मित्र के प्रति कृतज्ञ होने के गुण दिखाई पड़ते हैं।


प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के पंचम सर्ग की कथा में वर्णित कुंती - कर्ण के संवाद का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।


अथवा 


रश्मिरथी के पंचम सर्ग की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए।


उत्तर - पंचम सर्ग : माता की विनती


इस सर्ग का आरंभ कुंती की चिंता से है। उनकी इस कारण चिंतित है कि रण में मेरे पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। कुंती व्याकुल हो कर्ण से मिलने जाती है। उस समय पर संध्या कर रहा था, आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। उसने कुंती को प्रणाम करें उसका परिचय पूछा। कुंती ने बताया कि तू सूत- पुत्र नहीं मेरा पुत्र है। तेरा जन्म मेरी कोख से तब हुआ था, जब मैं अविवाहित थी। मैंने लोक- लाज्ज के भय से तुझे मंजूषा (पेटी) में रखकर नदी में बहा दिया था, परंतु अब मैं यह सहन नहीं कर सकती कि मेरे ही पुत्र एक दूसरे से युद्ध करें; अतः मैं तुझ से प्रार्थना करने आई हूं कि तुम उन्हें छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो।


कर्ण ने कहा कि मुझे अपने जन्म के विषय में सब कुछ ज्ञात है, परंतु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ सकता। असहाय कुंती ने कहा कि तू सब को दान देता है, क्या अपनी मां को भीख नहीं दे सकता? कर्ण ने कहा कि मां! मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूं। मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी पुत्र को नहीं मारूंगा। यदि अर्जुन के हाथों में मारा गया तो तुम पांच पुत्रों की मां रहोगी ही, परंतु यदि मैंने युद्ध में अर्जुन को मार दिया तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगा। तब भी तुम पांच पुत्रों की मां ही रहोगी। कुंती निराश मन से लौट आती है- 


हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, 2 बिंदु अश्रु के गिरे दृगों से चूकर ।

बेटे का मस्तक सूंघ बड़े ही दुख से, कुंती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।


प्रश्न. रश्मिरथी के सप्तम सर्ग की कथावस्तु के संक्षेप में उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य के आधार पर कर्ण और अर्जुन की युद्ध का वर्णन कीजिए। 


अथवा


रश्मिरथी खंडकाव्य की उस घटना का उल्लेख कीजिए जिसने आपको प्रभावित किया हो।


अथवा


रश्मिरथी खंडकाव्य की प्रमुख घटना पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।


उत्तर - सप्तम सर्ग: कर्ण के बलिदान की कथा


रश्मिरथी का यह अंतिम सर्ग है। कौरव सेनापति कर्ण ने पांडवों की सेना पर भीषण आक्रमण किया। कर्ण की गर्जना से पांडव सेना में भगदड़ मच जाती है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है, किंतु कुंती को दिए वचन का स्मरण कर युधिष्ठिर को छोड़ देता है। इसी प्रकार भीम नकुल और सहदेव को भी पकड़ - पकड़कर छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य उसके रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण प्रहार से अर्जुन मूर्छित हो जाता है। चेतना लौटने पर श्री कृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्तेजित करते हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फंस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। और श्री कृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण- प्रहार करने के लिए कहते हैं। कर्ण धर्म की दुहाई देता है तू श्रीकृष्ण उसे कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर देखकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है। और कर्ण की मृत्यु हो जाती है।


अंत में युधिष्ठिर आदि सभी कर्ण की मृत्यु पर प्रसन्न है, किंतु श्रीकृष्ण दुखी हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, शर्मीली मर्यादा को खोकर । वास्तव में चरित्र की दृष्टि से तो कर ही विजय रहा।


प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।


अथवा 


'रश्मिरथी' खंडकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।


अथवा


" 'रश्मिरथी' के प्रत्येक सर्ग में संवादात्मक स्थल ही सबसे प्रमुख है।" इस कथन का सतर्क विश्लेषण कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य के चतुर्थ वर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।


उत्तर - श्री रामधारी सिंह दिनकर द्वारा विरचित खंडकाव्य रश्मिरथी की कथा महाभारत से ली गई है। इस काव्य में परमवीर एवं दानी कर्ण की कथा है। रश्मिरथी के प्रत्येक सर्ग के संवादो में नाटकीयता के गुण विद्यमान है।यह नाटकीयता का गुण‌ प्रारंभ से अंत तक नाटक के प्रत्येक सर्ग में विद्यमान है। इसमें सरलता, सुबोधता , सुग्राह्यता, एवं स्वाभाविक के साथ-साथ प्रभावशीलता का गुण भी विद्यमान है। कवि ने इस नाटक के संवादों में घटनाओं और परिस्थितियों को भावात्मक धरातल पर संजोया है। इस खंडकाव्य की कथावस्तु 7 वर्गों में विभाजित है, जो संक्षेप में निम्न प्रकार है-


प्रथम सर्ग: कर्ण का शौर्य प्रदर्शन


प्रथम सर्ग के आरंभ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुंती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुंती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिए कुंती ने लोक लाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने। एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव और पांडव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाढ़ विद्या पर मुक्त हो गए, किंतु तभी धनुष- बाण लिए कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उस ने अर्जुन को द्वंद युद्ध के लिए चुनौती दी- 


आंख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार।

फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।।


कर्ण की इस चुनौती से संपूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह जाती है और अभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत- पुत्र बतलाया।

फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भाव-विह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की दुःखद विडम्बना पर मन मसोसती और लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुंचती है।


द्वितीय सर्ग : आश्रमवास


द्वितीय सर्ग का प्रारंभ परशुराम के आश्रम वर्णन से होता है। पांडवों के विरोध के कारण द्रोणाचार्य जब कर्ण को अपना नहीं बनाया तो कर्ण परशुराम के आश्रम में धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। परशुराम स्त्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण के कवच और कुंडल देखकर परशुराम ने उसे ब्राह्मण कुमार समझा और अपना शिष्य बना लिया।


एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक विषैला कीट कर्ण की जंघा को काटने लगा। गुरु की निद्रा न खुल जाए, इस कारण कर्ण अपने स्थान से हिला तक नहीं। जंघा से बहते रक्त की धारा स्पर्श से परशुराम निद्रा टूट गई। कर्ण की अद्भुत सहनशक्ति को देखकर परशुराम ने कहा कि ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं होती, इसीलिए तू अवश्य ही क्षत्रिय या अन्य जाति का है। कर्ण स्वीकार कर लेता है कि मैं सूत-पुत्र हूं। क्रुद्ध परशुराम ने उसे तुरंत अपने आश्रम से चले जाने को कहा और साफ दिया कि मैंने तुम्हें जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलाई है, तू अंत समय में उसे भूल जाएगा- 


सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा।

है यह मेरा शाप समय पर, उसे भूल तू जाएगा।।


करण गुरु की चरण धूलि लेकर आंसू भरे नेत्रों से आश्रम छोड़ कर चल देता है।


तृतीय सर्ग: कृष्ण संदेश


कौरवों से जुए में हारने के कारण पांडवों को 12 वर्ष का वनवास तथा 1 साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा । 13 वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पांडव अपने नगर इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं। पांडवों की ओर से श्री कृष्ण कौरवों से संधि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर आते हैं। श्री कृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परंतु दुर्योधन ने संधि प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उनके श्री कृष्ण को ही बंदी बनाने का असफल प्रयास किया।


दुर्योधन के न मानने पर श्री कृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परंतु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो: क्योंकि तुम कुंती- पुत्र हो। अब तुम ही इस भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग पूर्वक पहुंचता है कि आप मुझे कुंती -पुत्र बताते हो। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति गोत्रहीन सूत- पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम रोम दुर्योधन का ऋणी है। 


फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को न बताना; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे श्रेष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज दुर्योधन को दे डालूंगा- 


धरती की तो है क्या बिसात? आ जाए अगर बैकुंठ हाथ।

उसको भी न्योछावर कर दूं, कुरुपति के चरणों पर धर दूं।।


इतना कहकर और श्री कृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है। यह शरीर की कथा से जहां हमें श्री कृष्ण के महान कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्ति संपन्न होने की विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है वही कर्ण के अंदर हमें सच्चे मित्र और मित्र के प्रति कृतज्ञ होने के गुण दिखाई पड़ते हैं।


चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा


इस सर्ग में कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया गया है। कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचको को दान देता था। श्री कृष्ण यह बात जानते थे कि जब तक कांड के पास सूर्य भरा प्रदत्त कवच और कुंडल है, तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता है। इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने आए और कर्ण से उसके कवच और कुंडल दान में मांग लिए। यद्यपि कर्ण छह्यवेशी इंद्र को पहचान लिया, तथापि उसने इंद्र को कवच और कुंडल भी दान दे दिए । कर्ण की इस अद्भुत दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन पड़ गया - 


अपने कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला।

देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला।।


इंद्र ने कर्ण की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा तथा स्वयं को प्रवंचक , कुटिल व पापी बताया और कर्ण को एक बार प्रयोग में आने वाला अमोघ एकघ्नई अस्त्र प्रदान किया।


पंचम सर्ग:  माता की विनती

 

इस सर्ग का आरंभ कुंती की चिंता से है। उनकी इस कारण चिंतित है कि रण में मेरे पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। कुंती व्याकुल हो कर्ण से मिलने जाती है। उस समय पर संध्या कर रहा था, आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। उसने कुंती को प्रणाम करें उसका परिचय पूछा। कुंती ने बताया कि तू सूत- पुत्र नहीं मेरा पुत्र है। तेरा जन्म मेरी कोख से तब हुआ था, जब मैं अविवाहित थी। मैंने लोक- लाज्ज के भय से तुझे मंजूषा (पेटी) में रखकर नदी में बहा दिया था, परंतु अब मैं यह सहन नहीं कर सकती कि मेरे ही पुत्र एक दूसरे से युद्ध करें; अतः मैं तुझ से प्रार्थना करने आई हूं कि तुम उन्हें छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो।


कर्ण ने कहा कि मुझे अपने जन्म के विषय में सब कुछ ज्ञात है, परंतु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ सकता। असहाय कुंती ने कहा कि तू सब को दान देता है, क्या अपनी मां को भीख नहीं दे सकता? कर्ण ने कहा कि मां! मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूं। मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी पुत्र को नहीं मारूंगा। यदि अर्जुन के हाथों में मारा गया तो तुम पांच पुत्रों की मां रहोगी ही, परंतु यदि मैंने युद्ध में अर्जुन को मार दिया तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगा। तब भी तुम पांच पुत्रों की मां ही रहोगी। कुंती निराश मन से लौट आती है- 


हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, 2 बिंदु अश्रु के गिरे दृगों से चूकर ।

बेटे का मस्तक सूंघ बड़े ही दुख से, कुंती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।


षष्ठ सर्ग: शक्ति परीक्षण


युद्ध में आहत भीष्म शर- शैय्या पर पड़े हुए हैं। कर्ण उनसे युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म पितामह उसे नरसंहार रोकने के लिए समझाते हैं, परंतु कर्ण नहीं मानता और भूषण युद्ध आरंभ हो जाता है। कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है। किन्तु श्री कृष्ण अर्जुन का रथ कर्ण के सामने ही नहीं आने देते; क्योंकि उन्हें भय है कि कर्ण एकघ्नी का प्रयोग करके अर्जुन को मार देगा। अर्जुन को बचाने के लिए श्री कृष्ण ने भीम- पुत्र घटोत्कच को युद्ध भूमि उतार दिया। घटोत्कच ने घमासान युद्ध किया, जिससे कौरव - सेना त्राहि-त्राहि कर उठी। अंततः दुर्योधन ने कर्ण से कहा- 


हे वीर! विलपते हुए सैन्य का अचिर किसी विधि त्राण करो,

जब नहीं अन्य गति, आंख मूंद एकघ्नी का संधान करो।

अरि का मस्तक है दूर, अभी अपनों के शीश बचाओ तो,

जो मरण- पाश है पड़ा, प्रथम, उसमें से हमें छोड़ाओ तो।।


कर्ण ने भारी नरसंहार करते हुए घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग कर दिया, जिससे घटोत्कच मारा गया। घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से अर्जुन अभय हो गया। आज युद्ध में विजय होने पर भी कर्ण एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से स्वयं को मन ही मन पराजित सम्मान रहा था।


सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा


रश्मिरथी का यह अंतिम सर्ग है। कौरव सेनापति कर्ण ने पांडवों की सेना पर भीषण आक्रमण किया। कर्ण की गर्जना से पांडव सेना में भगदड़ मच जाती है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है, किंतु कुंती को दिए वचन का स्मरण कर युधिष्ठिर को छोड़ देता है। इसी प्रकार भीम नकुल और सहदेव को भी पकड़ - पकड़कर छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य उसके रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण प्रहार से अर्जुन मूर्छित हो जाता है। चेतना लौटने पर श्री कृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्तेजित करते हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फंस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। और श्री कृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण- प्रहार करने के लिए कहते हैं। कर्ण धर्म की दुहाई देता है तू श्रीकृष्ण उसे कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर देखकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है। और कर्ण की मृत्यु हो जाती है।


अंत में युधिष्ठिर आदि सभी कर्ण की मृत्यु पर प्रसन्न है, किंतु श्रीकृष्ण दुखी हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, शर्मीली मर्यादा को खोकर । वास्तव में चरित्र की दृष्टि से तो कर ही विजय रहा।


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'रश्मिरथी' के आधार पर श्री कृष्ण का चरित्र- चित्रण


प्रश्न. 'रश्मिरथी' के आधार पर श्री कृष्ण का चरित्र-  चित्रण कीजिए। 


अथवा


'रश्मिरथी' के आधार पर कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को संक्षेप में लिखिए।


उत्तर - रश्मिरथी खंडकाव्य श्रीकृष्ण के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई देती है- 


1.युद्ध- विरोधी -  पांडवों के वनवास से लौटने के बाद श्री कृष्ण कौरवों को समझाने के लिए स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध टालने का भरसक प्रयास करते हैं, किंतु हठी दुर्योधन नहीं मानता है। इसके बाद वे कर्ण को भी समझाते हैं , किंतु कारण भी अपने प्रण से नहीं हटता। अंत में श्री कृष्ण कहते हैं- 


यश मुकुट मान सिंहासन ले ले, बस एक भीख मुझको दे दे।

गौरव को तज रण रोक सखे, भू का हर भावी शोक सके।।


2. निर्भीक एवं स्पष्टवादी- श्री कृष्ण केवल अनुनय विनय ही करना नहीं जानते, वरन् वे निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता भी हैं। जब दुर्योधन समझाने से नहीं मानता तो वे उसे चेतावनी देते हुए कहते हैं-


तो ले मैं भी अब जाता हूं, अंतिम संकल्प सुनाता हूं,

याचना नहीं अब रण होगा, जीवन -जय या कि मरण होगा।


3. शीलवान व व्यवहारिक- श्री कृष्ण के सभी कार्य उनके शील के परिचायक हैं। वास्तव में भी एक सदाचार पूर्ण समाज की स्थापना करना चाहते हैं। वे शीघ्र को ही जीवन का सार मानते हैं-


नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है,

विभा का सार शील पुनीत में है।


साथ ही वह सांसारिक सिद्धि और सफलता के सभी सूत्रों से भी अवगत है।


4.गुणों के प्रशंसक- श्री कृष्ण अपने विरोधी के गुणों का भी आदर करते हैं। कर्ण उनके विरुद्ध लड़ता है, परंतु श्री कृष्ण कर्ण का गुणगान करते नहीं थकते- 


वीर सत बार धन्य , तुझ सा न मित्र कोई अनन्य।


5. महान कूटनीतिज्ञ- श्री कृष्ण महान कूटनीतिज्ञ हैं। पांडवों की विजय श्रीकृष्ण की कूटनीति के कारण हुई। वे पांडवों की ओर से कूटनीतिज्ञ का कार्यक्रम दुर्योधन की बड़ी शक्ति कर्ण को उससे अलग करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता का प्रमाण कर्ण से कहा गया उनका यह कथन है- 


कुंती का तू ही तनय श्रेष्ठ, बल शील में परम श्रेष्ठ।

मस्तक पर मुकुट देंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम।।


5. अलौकिक शक्ति संपन्न- कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र में जहां मानव स्वभाव के अनुरूप अनेक साधारण विशेषताओं का समावेश किया है, वही उन्हें अलौकिक शक्ति संपन्न रूप देकर लीला पुरुष भी सिद्ध किया है। जब दुर्योधन उन्हें कैद करना चाहता है, तब वे अपने विराट स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं-


हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप विस्तार किया।

डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले- 

"जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हां हां दुर्योधन बांध मुझे।"


इस प्रकार इस खंडकाव्य में श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ कूटनीतिकज्ञ, किंतु महान लोकोपकारक के रूप में चित्रित करके कवि ने उनके पौराणिक चरित्र को युगानुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है। कवि के इस प्रस्तुतीकरण की विशेषता यह है कि इससे कहीं भी उनके पौराणिक स्वरूप को क्षति नहीं पहुंचती है। कृष्ण का यह व्यक्तित्व कवि की कविता में युगानुसार प्रकट हुआ है।


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'रश्मिरथी' के आधार पर कर्ण का चरित्र चित्रण


प्रश्न. 'रश्मिरथी' के आधार पर कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' के प्रमुख पुरुष पात्र का चरित्र- चित्रण कीजिए।


अथवा


" 'रश्मिरथी काव्य में कर्ण के चरित्र चित्रण में धर्म निष्ठा और अडिग निष्ठा दिखाई पड़ती है।"स्पष्ट कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य के आधार पर नायक कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' के माध्यम से कवि दिनकर ने महारथी कर्ण के किन गुणों पर प्रकाश डाला है ? अपने शब्दों में लिखिए।


अथवा


"कर्ण महान योद्धा के साथ-साथ दानवीर भी है।"इस कथन के आधार पर कर्ण का चरित्र चित्रण कीजिए।


उत्तर - 'रश्मिरथी' कर्ण के चरित्र पर आधारित खंडकाव्य है। कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं- 


1. उत्कृष्ट चरित्र- कर्ण 'रश्मिरथी' का नायक है। काव्य की संपूर्ण कथा कर्ण के चारों ओर घूमती है। काव्य का नामकरण भी कर्ण को ही नायक सिद्ध करता है। 'रश्मिरथी' का अर्थ है- वह मनुष्य, जिसका रथ रश्मि अर्थात पुण्य का हो। इस काव्य में कर्ण का चरित्र ही पुण्यतम है। कर्ण के आगे अन्य किसी पात्र का चरित्र नहीं ठहर पाता ।


2. साहसी और वीर योद्धा- इस खंडकाव्य के आरंभ में ही कर्ण हमें एक वीर योद्धा के रूप में दिखाई देता है। शस्त्र विद्या प्रदर्शन के समय विवाहित प्रदर्शन स्थल पर उपस्थित होकर अर्जुन को ललकारता है तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। जब कृपाचार्य कर्ण से उसकी जाति, गोत्र आदि पूछते हैं तो कर्ण उन्हें सटीक उत्तर देता है- 


पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुज बल से।

रवि- समान दीपित ललाट से, और कवच कुंडल से।।


3. सच्चा मित्र- दुर्योधन ने जाति -अपमान से कर्ण की रक्षा उसे राजा बनाकर की , तभी से कर्ण दुर्योधन का अभिन्न मित्र बन गया। कृष्ण और कुंती के समझाने पर भी वह दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता और अंत समय तक अपने मित्रता के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।


4. सच्चा गुरु भक्त- कर्ण गुरु के प्रति परम विनयी एवं श्रद्धालु है। कीट कर्ण की जांग काटकर भीतर घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, पर कर्ण पैर नहीं हिलाता; हिलने से उसकी जांघ पर सिर रखकर सोए गुरु की नींद खुल जाएगी। आंखें खुलने पर गुरु को वह अपनी जाति व गोत्र बता देता है तो क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, परंतु कर्ण अपनी विनय नहीं छोड़ता और जाते समय भी गुरु की चरण धूल ही लेता है।


5. परम दानवीर- कर्ण के चरित्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह धन-संपत्ति की लिप्सा से मुक्त है। इसलिए प्रतिदिन प्रातः काल संध्या वंदन करने के बाद वह याचको को दान देता है। कर्ण की दान शीलता के संबंध में कवि कहता है- 


रवि - पूजन के समय सामने , जो भी याचक आता था।

मुंह मांगा वह दिन कर्ण से, अनायास ही पाता था।।


6. महान सेनानी- कौरवों की ओर से कर्ण महाभारत के युद्ध में सेनापति है। वह शर - शय्या पर लेटे भीष्म पितामह से युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म पितामह उसके विषय में कहते हैं -


अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे। तुम मिले कौरवों को वैसे।।


युद्ध में कर्ण ने अपने रण कौशल से पांडवों की सेना में हाहाकार मचा दिया। उसकी वीरता की प्रशंसा करते हुए श्री कृष्ण भी कहते हैं- 


प्रचंड इसका बल है । यह मनुज नहीं कालानल है।।


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'रश्मिरथी' के आधार पर कुंती का चरित्र चित्रण

प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के किसी नारी के चरित्र का चरित्र -चित्रण कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' के आधार पर कुंती के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।


अथवा


" 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के नारी पात्र कुंती के चरित्र में कवि ने मातृत्व के भीषण अंतर्द्वंद की सृष्टि की है।" इस कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।


उत्तर - कुंती पांडवों की माता है। विवाहिता कुंती के गर्भ से सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुंती के पांच नहीं वरन 6 पुत्र थे। कुंती की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित है- 


१.वात्सल्यमयी माता - कुंती को जब यह ज्ञात होता है कि कर्ण का उसके अन्य पुत्रों से युद्ध होने वाला है तो वह कर्ण को मनाने उसके पास पहुंच जाती है। उस समय कर्ण सूर्य की उपासना कर रहा था। अपने पुत्र कर्ण के तेजोमय तेजोमय रूप को देख कुंती फूली नहीं समाती। संध्या से आंखें खोलने पर कर्ण स्वयं को राधा का पुत्र बताता है तो कुंती यह सुनकर व्याकुल हो जाती है- 


रे कर्ण!बेध मत मुझे निदारुण शर से।

राधा का सुत तू नहीं , तनय मेरा है।।


कर्ण के पास से निराश लौटती हुई कुंती कर्ण को अपने अंक में भर लेती है, जो उसके वात्सल्य का प्रमाण है।


२. अंतर्द्वंद ग्रस्त- जब कुंती के ही पुत्र परस्पर शत्रु बने खड़े हैं, तब कुंती के हृदय में अंतर्द्वंद की भीषण आंधी उठ रही थी। वह इस समय बड़ी ही उलझन में पड़ी हुई है। पांचो पांडव और कर्ण में से किसी की हानि हो, पर वह हानि तो कुंती की ही होगी। वह अपने पुत्रों का सुख- दुख अपना सुख- दुख समझती है।


दो में किसका उर फटे, फटूंगी मैं ही।

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूंगी मैं ही।।


३. समाजभीरु- कुंती लोक- लाज से बहुत अधिक भयभीत एक भारतीय नारी की प्रतीक है। कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न नवजात शिशु (कर्ण) को वह लोक- निन्दा के भय से गंगा की लहरों में बहा देता है। इस बात को वह कर्ण के समक्ष भी स्वीकार करती है - 


मंजूषा में धर वज्र कर मन को,

धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।


कर्ण को युवा और वीरत्व की प्रतिमूर्ति बने देखकर भी अपना पुत्र कहने का साहस नहीं कर पाती। जब युद्ध की विभीषिका सम्मुख आ जाती है, तो वह कर्ण से अपनी दयनीय स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त करती है -


बेटा धरती पर बड़ी दिन है नारी,

अबला होती, सचमुच योगिता कुमारी।

है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,

सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।


४.निश्छल - कुंती का हृदय जलरहित है।वह कर्ण के पास में कोई छल रखकर नहीं वरन् निष्कपट भाव से गयी थी। यद्यपि कर्ण उसकी बातें स्वीकार नहीं करता, किन्तु कुंती उसके प्रति अपना ममत्व कम नहीं करती ।


५. बुद्धिमती और वाक् पटु - कुंती एक बुद्धिमती नारी है। वह अवसर को पहचानने तथा दूरगामी परिणाम का अनुमान करने में समर्थ है। कर्ण अर्जुन युद्ध का निश्चय जानकर वह समुचित कदम उठाती है- 


सोचा कि आज भी चूक अगर जाऊंगी,

भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊंगी।

फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,

अब आ क्षणभर मैं तुझे अंक में भर लूं।।


इस प्रकार कवि ने 'रश्मिरथी' में कुंती के चरित्र में कई उच्च कोटि के गुणों के साथ - साथ मातृत्व के भीषण अंतर्द्वंद की सृष्टि करके, इस विवश मां की ममता को महान बना दिया है।


प्रश्न. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएं बताइए तथा उसके कथा संगठन की समीक्षा कीजिए।


अथवा 


" 'रश्मिरथी' एक उदात्त और आदर्श भावनाओं का काव्य है।"किस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।


अथवा


'रश्मिरथी' में प्राचीन पृष्ठभूमि पर आधुनिक समस्याओं का निरूपण किया गया है स्पष्ट कीजिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएं बताइए।


अथवा


" 'रश्मिरथी के कथानक में ऐतिहासिकता और मार्मिकता दोनों हैं।"इस कथन के आधार पर इस खंड काव्य की विशेषताएं लिखिए।


अथवा


'रश्मिरथी' खंडकाव्य उदात्त मानव मूल्यों का उद्घाटन हुआ है। स्पष्ट कीजिए।


अथवा


खंडकाव्य की दृष्टि से 'रश्मिरथी' एक सफल खंडकाव्य है । स्पष्ट कीजिए।


उत्तर - कविवर रामधारी सिंह 'दिनकर' ने रश्मिरथी खंडकाव्य में परमवीर कर्ण के जीवन से संबंध कुछ प्रसंगों को लेकर कथा का संगठन किया है।' रश्मिरथी' की कथावस्तु की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं -


१. प्रभावशाली कथावस्तु- 'रश्मिरथी' का आरंभ शस्त्र विद्या के प्रदर्शन से होता है। इस प्रदर्शन में कर्ण का जाति व गोत्र के नाम पर अपमान किया जाता है। इस प्रकार कथा का आरंभ बड़ा ही प्रभावशाली है। इसके बाद परशुराम भी जाति के आधार पर कर्ण को शाप देकर अपने आश्रम से निकाल देते हैं। श्री कृष्ण और कुंती कर्ण को अपनी ओर करना चाहते हैं। यहां आकर कथा की चरम सीमा आ जाती है। इसके बाद कर्ण युद्ध में युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को पकड़ कर छोड़ देता है। और घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग करता है। यहां कथा का उतार है। इसके बाद कर्ण के रथ का पहिया धस जाता है और अर्जुन निहत्थे कर्ण पर बाण- वर्षा करके मार डालता है। अंत में श्री कृष्ण और युधिष्ठिर के वार्तालाप के साथ रश्मिरथी का अंत हो जाता है।


इस प्रकार रश्मिरथी में कवि ने सभी घटनाओं को बड़े कौशल के साथ प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया है। वास्तव में इस काव्य की कथावस्तु पाठक के हृदय और मस्तिष्क पर अमित प्रभाव छोड़ती है।


२.ऐतिहासिकता- रश्मिरथी की कथा महाभारत से ली गई है। महाभारत में भी यह कथा इसी प्रकार है। दिनकर जी ने अपने रचना कौशल से कथा को अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी बना दिया है। इस प्रकार रश्मिरथी की संपूर्ण कथा ऐतिहासिक है।


३. प्रेरणाप्रद (उद्देश्य)- रश्मिरथी की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसमें कवि ने भारतवर्ष में व्याप्त जाती पाती गत भेदभाव, कौमार्यावस्था में संतानोत्पत्ति, राजलिप्सा हेतु परस्पर युद्ध आदि देश गत अन्य समस्याओं का संकेत किया है। कवि आधुनिक भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त करता है- 


धंस जाए वह देश असल में, गुण की नहीं जहां पहचान।

जाति गोत्र के बल से ही, आदर पाते हैं जहां सुजान।।


इसके अतिरिक्त कवि ने युद्ध की समस्या, कुंवारी माताओं के सील की समस्या के माध्यम से आधुनिक भारतीय समाज के जलन प्रश्नों उनके दुष्परिणामों को नई व्याख्या दी है।


इसके साथ ही इस खंडकाव्य में अदम्य में वीरता, असाधारण दानशीलता, सत्य निष्ठा, अटल मित्रता, कृतज्ञता, सर्वस्व दान, उदारता, सहृदयता आदि महान गुणों की प्रतिष्ठा हुई है। इससे पाठक महान बनने की प्रेरणा प्राप्त करता है।


४. मार्मिकता- कवि ने इस काव्य में अनेक मार्मिक प्रसंगों का चित्रण किया है; जैसे करण का शोर प्रदर्शन और अपमान, मसोसती हुई कुंती का रथ की ओर गमन, परशुराम के आश्रम से कर्ण का निष्कासन, कुंती का कर्ण से वार्तालाप आदि। यह स्थल इतने अधिक मार्मिक हैं कि पाठक या श्रोता अपने आपको भी भूल जाता है।


इस प्रकार रश्मिरथी खंडकाव्य की कथावस्तु उत्कृष्ट कोटि की है। 'दिनकर'  का पूरा प्रकाश कथावस्तु को आलोकित रखता है।


Disclaimer: यह Blog एक सामान्य जानकारी के लिए है। इस Blog का उद्देश्य सामान्य जानकारी उपलब्ध कराना है। इसका किसी भी वेबसाइट या ब्लॉग से कोई संबंध नहीं है। यदि सम्बंध पाया गया तो यह महज एक संयोग समझा जाएगा।


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