भारतेंदु युग की विशेषताएं /भारतेंदु युग का परिचय [हिंदी साहित्य का आधुनिक काल ]
भारतेंदु युग की विशेषताएं /भारतेंदु युग परिचय [हिंदी साहित्य का आधुनिक काल ]
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भारतेंदु युग किसे कहते हैं ? भारतेंदु युग की विशेषताएं।
आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के अंतर्गत आधुनिक काल में भारतेंदु युग में परिचय को पढ़ेंगे और इस युग की प्रमुख विशेषताएं जानेंगे।
भारतेंदु युग किसे कहते हैं? (Bhartendu Yug kya hai)
भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवेश द्वार माना जाता है। ऐसे युग के कवियों में नवीन के प्रति मोह साथ ही प्राचीन के अति आग्रह भी था। भारतेंदु युग नवजागरण का युग है। इसमें नई सामाजिक चेतना उभर कर आई। भारतेंदु युग में देशभक्ति और राज भक्ति तत्कालीन राजनीति का अभिन्न अंग थी, इसका स्पष्ट प्रभाव ऐसे युग के कवियों में देखा जा सकता है।
भारतेंदु काल में कविता के क्षेत्र में ब्रज भाषा का प्रयोग एवं गद्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया। खड़ी बोली का विकास इस युग की महत्वपूर्ण घटना है। इस युग में पत्रकारिता, उपन्यास कहानी ,नाटक ,आलोचना ,निबंध आदि अनेक गद्य विधाओं का विकास हुआ, किसका माध्यम खड़ी बोली है। इस युग में प्रत्येक लेखक किसी ना किसी पत्रिका का संपादन करता था। भारतेंदु युग में जिन साहित्यिक रूपों और प्रवृत्तियों का बीज बोया गया था, वह द्विवेदी युग में खूब फला फूला।
भारतेंदु युग नवजागरण का युग है।….. भारतेंदु काल में कविता के क्षेत्र में ब्रज भाषा का प्रयोग एवं गद्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया। खड़ी बोली का विकास ऐसे योग्य की महत्वपूर्ण घटना है। इस युग में पत्रकारिता उपन्यास, कहानी, नाटक, आलोचना, निबंध आदि अनेक गद्य विधाओं का विकास हुआ, माध्यय खड़ी बोली है।
भारतेंदु युग की आधुनिक कालीन साहित्य रूपी विशाल भवन की आधारशिला है। विद्वानों में भारत का भारतेंदु युग की समय सीमा सन 1857 से सन् 1900 तक स्वीकार की है, भाव ,भाषा, शैली आदि सभी दृष्टि से इस योग में हिंदी साहित्य की उन्नति हुई। हिंदी साहित्य के आधुनिक कालीन भारतेंदु युग प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है। यह राष्ट्रीय जागरण के अग्रदूत थे। उनके युग में रीतिकालीन परिपाटी की कविता का अवसान राष्ट्रीय एवं समाज सुधार भावना की कविता का उदय हुआ। उन्होंनेे कवियों का एक ऐसा मंडल तैयार किया जिन्होंने ,अपनी रचनाओं के माध्यम से नवयुग की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की।
नवजागरण काल
भारतेंदु काल को 'नवजागरण काल' भी कहा गया है। हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के संक्राति काल के दो पक्ष हैं। इस समय के दरम्यान एक और प्राचीन परिपाटी में काव्य रचना होती रही और दूसरी ओर सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में जो सक्रियता बढ़ रही थी और परिस्थितियों के बदलाव के कारण जिन नये विचारों का प्रसार हो रहा था, उनका भी धीरे-धीरे साहित्य पर प्रभाव पड़ने लगा था। प्रारंभ के 25 वर्षों (1843 से 1869) तक साहित्य पर यह प्रभाव बहुत कम पड़ा, किन्तु सन 1868 के बाद नवजागरण के लक्षण अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे थे। विचारों में इस परिवर्तन का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को है। इसलिए इस युग को "भारतेन्दु युग" भी कहते हैं। भारतेन्दु के पहले ब्रजभाषा में भक्ति और श्रृंगार परक रचनाएँ होती थीं और लक्षण ग्रंथ भी लिखे जाते थे। भारतेन्दु के समय से काव्य के विषय चयन में व्यापकता और विविधता आई। श्रृंगारिकता, रीतिबद्धता में कमी आई। राष्ट्र-प्रेम, भाषा-प्रेम और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम कवियों के मन में भी पैदा होने लगा। उनका ध्यान सामाजिक समस्याओं और उनके समाधान की ओर भी गया। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में गतिशील नवजागरण को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रोत्साहित किया।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के संक्रांति काल के दो पक्ष हैं। इस समय के दरम्यान एक और प्राचीन परिपाटी में कब रचना होती रही है और दूसरी ओर सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में जो सक्रियता बढ़ रही थी। और परिस्थितियों के बदलाव के कारण जिन नए विचारों का प्रसार हो रहा था। उनका धीरे-धीरे साहित्य पर प्रभाव पड़ने लगा था। परम के 25 वर्षों (1843 से 1869) तक साहित्य पर यह प्रभाव बहुत कम पड़ा।
किंतु सन 1868 के बाद नवजागरण के लक्षण अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे थे।आधुनिक हिंदी काव्य के प्रथम चरण को "भारतेन्दु युग" की संज्ञा प्रदान की गई है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने 'कविवचन सुधा', 'हरिश्चन्द्र मैगज़ीन' और 'हरिश्चंद्र पत्रिका' भी निकाली। इसके साथ ही अनेक नाटकों आदि की रचना भी की। भारतेन्दु युग में निबंध, नाटक, उपन्यास तथा कहानियों की रचना हुई।
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विचारों में इस परिवर्तन का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को है। इस लिए इस युग को भारतेन्दु युग भी कहते हैं। भारतेन्दु के पहले ब्रज भाषा में भक्ति और श्रृंगार परक रचनाएँ होती थीं और लक्षण ग्रंथ भी लिखे जाते थे। भारतेन्दु के समय से काव्य के विषय चयन में व्यापकता और विविधता आई।
श्रृंगारिकता, रीतिबद्धता में कमी आई। राष्ट्र-प्रेम, भाषा-प्रेम और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम कवियों के मन में भी पैदा होने लगा। उनका ध्यान सामाजिक समस्याओं और उनके समाधान की ओर भी गया। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में गतिशील नवजागरण को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रोत्साहित किया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1850-1885), बाबा सुमेर सिंह , बदरी नारायण प्रेमघन (1855-1923), प्रताप नारायण मिश्र (1856-1894), राधाकृष्ण दास (1865-1907), अंबिका दत्त व्यास (1858-1900) और ठाकुर जगमोहन सिंह(1857-1899) इस युग के प्रमुख कवि हैं। अन्य कवियों में रामकृष्ण वर्मा, श्री निवासदास, लाला सीताराम, राय देवी प्रसाद, बालमुकुंद गुप्त, नवनीत चौबे आदि हैं।
भारतेन्दुकालीन कविता की मुख्य विशेषताएं
भारतेंदु युग ही आधुनिककालीन साहित्यरूपी विशाल भवन की आधारशिला है। विद्वानों मैं भारत भारतेंदु युग की समय-सीमा सन् 1857 से सन् 1900 तक स्वीकार की है, भाव, भाषा, शैली आदि सभी दृष्टियों से इस योग में हिंदी साहित्य की उन्नति हुई । हिंदी साहित्य के आधुनिककालीन भारतेंदु युग प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है। यह राष्ट्रीय जागरण के अग्रदूत थे। उनके युग में रीतिकालीन परिपाटी की कविता का अवसान राष्ट्रीय एवं समाज सुधार भावना की कविता का उदय हुआ। उन्होंने कवियों का एक ऐसा मंडल तैयार किया, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से नवयुग की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतेंदुयुगीन साहित्य की विशेषताएं निम्नलिखित है-
(1) राष्ट्रप्रेम का भाव
(2) जनवादी विचारधारा
(3) हास्य- व्यंग्य की प्रधानता
(4) प्राकृति- वर्णन
(5) गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास
(6) छंद-विधान की नवीनता
(7) भारतीय संस्कृति का गौरवगान
(1) राष्ट्रप्रेम का भाव :
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिणामस्वरुप भारतवासियों में सोई हुई आत्मशक्ति के जागरण के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के प्रति लालसा बढ़ी, जिससे उनमें राष्ट्रीयता के भाव का उदय होना स्वाभाविक था। इसका प्रभाव इस युग की रचनाओं पर भी पड़ा। इस युग के रचनाकारों की रचनाओं में देशभक्ति का स्वर विशेष रूप से गुंजायमान है।
करहु आज सों राज आप केवल भारत हित,
केवल भारत के हित साधन में दीजे चित। (प्रेमघन)
इस युग के कवि देश की दयनीय दशा से उत्पन्न क्षोभ के कारण ईश्वर से प्राथना करते हैं-
कहाँ करुणानिधि केशव सोए?
जानत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।(भारतेन्दु)
तो कहीं-कहीं उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए स्वतंत्रता का महत्व बताया है-
सब तजि गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातै खाव।
राजा करै सो न्याव है, पाँसा परे सो दाँव।।
(2) जनवादी विचारधारा:
भारतेंदु युग का साहित्य पुराने ढांचे से संतुष्ट नहीं है वे उनमें बदलाव कर यह सुधार कर उसमें नयापन लाने का प्रयास किये है इस काल का साहित्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है।
(3) हास्य- व्यंग्य की प्रधानता :
इस योग में प्राय: सभी रचनाकारों की रचनाओं में हास्य- व्यंग्य का पुट मिलता है। अंधविश्वासों, रूढ़ियों, छुआछूत, अंग्रेजी शासन, पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण आदि पर व्यंग्य करने के लिए इन रचनाकारों ने विषय एवं शैली के नए-नए प्रयोग किए जो इनकी रचनाओं में लक्षित है ।
(4) प्रकृति - वर्णन:
इस योग के अधिकांश कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति को विषय के रूप में ग्रहण किया है। उनके प्राकृतिक- वर्णन में श्रृंगारिक भावनाओं की प्रधानता है। भारतेंदु की 'बसंत होली',अंबिकादत्त व्यास की 'पावन पचासा'तथा प्रेमधन की 'मयंक महिला' आदि इसी कोटि की रचनाएं हैं।
(5) गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास:
भारतेंदु युग की सबसे महत्वपूर्ण देन है गद्य व उसके अन्य विधाओं का विकास। इस युग में पद्य के साथ गद्य विधा प्रयोग में आयी जिससे मानव के बौद्धिक चिंतन का भी विकास हुआ। कहानी, नाटक ,आलोचना आदि विधाओं के विकास की पृष्ठभूमि का भी यही योग रहा है।
(6) छंद-विधान की नवीनता:
भारतेंदु ने जातीय संगीत का गांवों में प्रचार के लिए ग्राम्य छंदों-कजरी, ठुमरी, लावनी, कहरवा तथा चैती आदि को अपनाने पर जोर दिया। कवित्त सवैया ,दोहा जैसे परंपरागत छंदों के साथ-साथ इनका भी जमकर प्रयोग किया गया।
(7) भारतीय संस्कृति का गौरवगान:
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को उच्च बताने वालों के विरुद्ध व्यंग्य और हास्यपूर्ण रचनाएं लिखी गयीं। भारत के गौरवमय अतीत को भी कविता का विषय बनाया गया।
निष्कर्ष
भारतेंदु युग की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है प्राचीन और नवीन का समन्वय। भारतेंदुयुगीन साहित्यकार कविता ब्रजभाषा और गद्य में खड़ी बोली के पक्षपाती थे। ब्रज भाषा में वे एक साथ भक्ति और श्रृंगार की कविता लिखकर प्राचीन कवियों की कोटी मैं पहुंचते हैं और नवीन ढंग की देशभक्ति तथा समाज सुधार की कविताएं लिखकर नहीं कवियों का नेतृत्व करते हैं।
जनवादी विचारधाराः
भारतेन्दु युगीन कविता की दूसरी प्रमुख विशेषता है- जनवादी विचारधारा। डॉ. रामविलास शर्मा के मतानुसार भारतेन्दु युग की जनवादी भावना उसके समाज-सुधार में समायी हुई है। इस युग का साहित्य भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न होकर उसमें सुधार चाहता था। इस युग के कवियों ने समाज के दोष युक्त अंग की आलोचना की है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
भारतेन्दु मेम-मेहरानी के बारे में कहते हैं-
का भवा, आवा है ए राम जमाना कैसा।
कैसी महरारू है ई, हाय जमाना कैसा।
भारतेन्दु युगीन कविता में सांप्रत समाज की दशा का, विदेशी सभ्यता के संकट का, पुराने रोजगार के बहिष्कार का स्वर दिखाई देता है।
इस युग में दो विचार-धाराएँ दिखाई देती हैं-
1.पुराणवादी परंपरा के समर्थकों की
2. आधुनिक व्यापक दृष्टि वालों की
किन्तु भारतेन्दु ने मध्यम मार्ग अपनाया था। भारतेन्दु ने सामाजिक दोषों, रूढ़ियों, कुरीतियों का घोर विरोध किया है। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले ढोंग की पोल खोल दी है। छुआछूत के प्रचार के प्रति क्षोभ के स्वर कवि में हैं। प्रतापनारायण मिश्र स्त्रियों की शिक्षा के पक्षपाती हैं, बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवाओं के दुख से दुखी है।
देश-भक्ति और राष्ट्रीय-भावना :
इस काल की कविता की मुख्य प्रवृति देश-भक्ति की है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत का शासन कंपनी के हाथ ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था। जिससे जनता को शांति और सुरक्षा की आशा बँधी। इसलिए कविता में राज-भक्ति का स्वर सुनाई पड़ता है। इसमें ब्रिटिश शासकों की गुलामी के साथ-साथ देश की दशा सुधारने की प्रार्थना भी है। जैसे,
करहु आज सों राज आप केवल भारत हित,
केवल भारत के हित साधन में दीजे चित। (प्रेमघन)
इस युग के कवि देश की दयनीय दशा से उत्पन्न क्षोभ के कारण ईश्वर से प्राथना करते हैं-
कहाँ करुणानिधि केशव सोए?
जानत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।(भारतेन्दु)
तो कहीं-कहीं उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए स्वतंत्रता का महत्व बताया है-
सब तजि गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातै खाव।
राजा करै सो न्याव है, पाँसा परे सो दाँव।।
प्राचीन परिपाटी की कविताः
भक्ति और श्रृंगार- इस युग में प्राचीन परिपाटी का कविता का सृजन हुआ था। भक्ति और श्रृंगार की परंपराएं इस युग तक चलती रही, परिणाम भारतेन्दु तथा अन्य कवियों ने इसका अनुसरण किया। कुछ कवियों ने नख-शिख वर्णन किया तो कुछ ने दान-लीला, मृगया की रीतिकालीन पद्धति अपनायी। इस प्रकार इस युग की कविता में भक्ति, श्रृंगार एवम् प्रेम-वर्णन के सुंदर नमूने मिलते हैं। जैसे,
भक्ति-वर्णन- ब्रज के लता पता मोहि कीजै।
गोपी पद पंकज पावन की रव जायैं सिर घीजै।। (भारतेन्दु)
श्रृंगार-वर्णन- साजि सेज रंग के महल में उमंग भरी।
पिय गर लागी काम-कसक मिटायें लेत।
उन्होंने रीति कालीन आचार्यों की तरह स्वरति, समरति, चित्ररति, वस्त्ररति, पपड़ीपन आदि यौन-विकृतियों के चित्र वर्णित किये हैं।
प्रेम-वर्णन- सखी ये नैना बहुत बुरे।
तब सों भये पराये, हरि सों जब सों जाइ जुरे।।
मोहन के रस बस ह्वै डोलत तलफत तनिक बुरे।।
कलात्मकता का अभावः
भारतेन्दु युगीन कविता की चौथी मुख्य प्रवृत्ति है- कलात्मकता का अभाव। नवयुग की अभिव्यक्ति करने वाली यह कविता कलात्मक न हो सकी। जिसके कारण हैं-
1. इस काल में विचारों का संक्रांति काल था जिसके कारण में इसमें कलात्मकता का अभाव रहा।
2. इस युग में कवि समाचार-पत्रों द्वारा अपनी कविता का प्रचार करते थे, इसलिए उन्हें इसे काव्यपूर्ण बनाने की चिंता नहीं थी।
3. भाषा का अस्तित्व और नागरी आंदोलन के कारण भी कविता कलात्मकता धारण न कर सकी। क्योंकि इस आंदोलन के लिए कवियों को जनमत जागरित करना था जो कि जनवाणी से ही संभव था कहने का मतलब यह है कि इस युग के कवि तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवम् भाषा संबंधी समस्याओं में इतने व्यस्त थे कि वे नवयुग की चेतना को कलात्मक एवम् प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त न कर सके और उसमें सर्वत्र यथार्थ की अनुभूति की सच्चाई सरल भाषा-शैली में अभिव्यक्त हुई। जैसे,
खंडन-मंडन की बातें सब करते सुनी सुनाई।
गाली देकर हाय बनाते बैरी अपने भाई।।
हैं उपासना भेद न उसके अर्थ और विस्तार।
सभी धर्म के वही सत्य सिद्धांत न और विस्तारो
काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोगः
इस काल की भाषा प्रमुख रूप से ब्रज ही रही। खड़ीबोली गद्य तक ही रही थी। किन्तु इस युग के अंतिम दिनों में खड़ीबोली में कविता करने का आंदोलन प्रारंभ हो गया था। जिसके कारण द्विवेदी युग में कविता के क्षेत्र में खड़ीबोली का प्रयोग शुरू हो जाता है। बद्रीनारायण चौधरी, अंबिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र आदि कवियों ने भारतेन्दु काल में खड़ीबोली में कविता करने का प्रयास किया था। जैसे-
हमें जो हैं चाहते निबाहते हैं प्रेमघन,
उन दिलदारों से ही,मेल मिला लेते हैं। (प्रेमघन)
भारतेन्दु की खड़ी बोली का एक उदाहरण देखें-
साँझ सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।
हम सब एक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार सबेरा है।।
इससे स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग में खड़ी बोली में उच्चकोटि की रचना नहीं मिलती। इसका कारण स्पष्ट है कि इस युग ब्रज भाषा पर रिझे हुए थे। इस प्रकार भाव-व्यंजना का प्रधान माध्यम ब्रजभाषा ही रही।
हास्य-व्यंग्य एवम् समस्या पूर्तिः
इस युग में हास्य-व्यंग्यात्मक कविताएँ भी काफी मात्रा में लिखी गई। सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों तथा पाश्चात्य संस्कृति पर करारे व्यंग्य किए गए। इस दृष्टि से प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र की रचनाएँ सर्वोत्तम हैं।
समस्या-पूर्ति इस युग की काव्य-शैली थी और उनके मंडल के कवि विविध विषयों पर तत्काल समस्यापूर्ति किया करते थे। रामकृष्ण वर्मा, प्रेमघन, ब्रेनी ब्रज आदि कवि तत्काल समस्या-पूर्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
प्राचीन छंद-योजनाः
भारतेन्दु युग में कवियों ने छंद के क्षेत्र में कोई नवीन एवम् स्वतंत्र प्रयास नहीं किया। इन्होंने परंपरा से चले आते हुए छंदों का उपयोग किया है। भक्ति और रीति काल के कवित्त, सवैया, रोला, दोहा, छप्पय आदि छंदों का इन्होंने प्रयोग किया। जब कि जातीय संगीत का सादारम लोगों में प्रचार करने के लिए भारतेन्दु ने कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा, गज़ल, श्रद्धा, चैती, होली, सांझी,लावनी, बिरहा, चनैनी आदि छंदों को अपनाने पर जोर दिया था।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस युग में परंपरा और आधुनिकता का संगम है। कविता की दृष्टि से यह संक्रमण का युग था। कवियों के विचारों में परिवर्तन हो रहा था। परंपरागत संस्कारों का पूर्ण रूप से मोहभंग हुआ भी न था और साथ में नवीन संस्कारों को भी वे अपना रहे थे। काशी नवजारण का प्रमुख केन्द्र था और यहां का साहित्यिक परिवेश भी सर्वाधिक जागरूक था। तत्कालीन परिवर्तनशील सामाजिक मूल्यों का भी उन पर प्रभाव पड़ रहा था।
इस युग की अधिकांश कविता वस्तुनिष्ठ एवम् वर्णनात्मक है। छंद, भाषा एवम् अभिव्यंजना पद्धति में प्राचीनता अधिक है, नवीनता कम। खड़ी बोली का आंदोलन प्रारंभ हो चुका था किन्तु कविता के क्षेत्र में ब्रज ही सर्वमान्य भाषा रही।
प्रकृति-चित्रण :
इस युग के कवियों ने पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा प्रकृति के स्वतंत्र रुपों का विशेष चित्रण किया है। भारतेंदु के "गंगा-वर्णन" और "यमुना-वर्णन" इसके निदर्शन हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह के स्वतंत्र प्रकृति के वर्णन भी उत्कृष्ट बन पड़े हैं। प्रकृति के उद्दीपन रूपों का वर्णन भी इस काल की प्रवृत्ति के रूप जीवित रहा।
रस : इस काल में शृंगार, वीर और करुण रसों की अभिव्यक्ति की प्रवृत्ति प्रबल रही, किंतु इस काल का शृंगार रीतिकाल के शृंगार जैसा नग्न शृंगार न होकर परिष्कृत रुचि का शृंगार है।देश की दयनीय दशा के चित्रण में करुण रस प्रधान रहा है।
भाषा और काव्य-रूप :
इन कवियों ने कविता में प्राय: सरल ब्रजभाषा तथा मुक्तक शैली का ही प्रयोग अधिक किया।ये कवि पद्य तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि गद्यकार भी बने। इन्होंने अपनी कलम निबंध, उपन्यास और नाटक के क्षेत्र में भी चलाई। इस काल के कवि मंडल में कवि न केवल कवि था बल्कि वह संपादक और पत्रकार भी था।
इस प्रकार भारतेंदु-युग साहित्य के नव जागरण का युग था, जिसमें शताब्दियों से सोये हुए भारत ने अपनी आँखें खोलकर अंगड़ाई ली और कविता को राजमहलों से निकालकर जनता से उसका नाता जोड़ा।उसे कृत्रिमता से मुक्त कर स्वाभाविक बनाया,शृंगार को परिमार्जित रूप प्रदान किया और कविता के पथ को प्रशस्त किया।भारतेंदु और उनके सहयोगी लेखकों के साहित्य में जिन नये विषयों का समावेश हुआ ,उसने आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को जन्म दिया। इस प्रकार भारतेंदु युग आधुनिक युग का प्रवेश द्वार सिद्ध होता है।
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