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मीराबाई का जीवन परिचय / meerabai ka jeevan parichay in hindi

 मीराबाई का जीवन परिचय// Meerabai ka jivan Parichay

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मीराबाई का जीवन परिचय

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मीराबाई का जीवन परिचय

जन्म -1498 ईस्वी

जन्मस्थान - चौकड़ी ग्राम (राजस्थान )

मृत्यु -1546 ईस्वी

संक्षिप्त परिचय - कृष्ण की अनन्य उपासिका ,प्रेम दीवानी ,राजस्थान की कवयित्री थी. ये जोधपुर के राजा रतन सिंह की पुत्री ,जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी की प्रपौत्री थी. बाल्यकाल में ही इनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था . इसलिए इनका लालन- पालन इनके वैष्णव भक्त दादा राव दूदा जी ने किया था. 

 मीराबाई का विवाह सन 1516  ईस्वी के लगभग राणा सांगा के पुत्र महाराणा भोजराज के साथ संपन्न हुआ था.विवाह के कुछ समय बाद इनके पति का देहांत हो गया था. इन्होने इसके बाद श्रीकृष्ण को ही अपना पति मान लिया और उनके प्रेम में दीवानी हो गयी.

भाषा :- साहित्यिक ब्रज भाषा , गुजराती, राजस्थानी , पंजाब




एक दृष्टि में- 

नाम- मीराबाई
अन्य नाम- मीरा, मीराबाई
जन्म- सन् 1498 ई.
जन्म स्थान- चौकड़ी ग्राम, मेड़ता, राजस्थान
मृत्यु- सन् 1546
मृत्यु स्थान- रणछोड़ मंदिर, द्वारिका गुजरात
माता- वीर कुमारी
पिता- रत्न सिंह राठौर
दादाजी- राव जोधा
पति - राणा भोजराज सिंह
रचनाएं- नरसी जी का मायरा,राग गोविंद,राग सोरठ के पद, गीत गोविंद की टीका, मीराबाई की मल्हार, राग विराग एवं फुटकर पद, गरवा गीत
भाषा- बृजभाषा (राजस्थानी ,गुजराती ,पश्चिमी हिंदी और पंजाबी का प्रभाव)
शैली- पदशैली 
साहित्य काल- भक्ति काल

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जीवन परिचय-

मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई० के लगभग राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम रत्नसिंह था तथा वे जोधपुर-संस्थापक राव जोधा की प्रपौत्री थीं। बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया था; अत: वे अपने पितामह राव जोधा जी के पास रहती थीं। प्रारम्भिक शिक्षा भी उन्होंने अपने दादाजी के पास रहकर ही प्राप्त की थी। राव दा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृत्ति के थे जिनका प्रभाव मीरा के जीवन पर पूर्णरूपेण पड़ा था।


बचपन से ही मीराबाई कृष्ण की आराधिका थीं। उनका विवाह उदयपुर के राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति की मृत्यु हो गयी । मीरा की मृत्यु द्वारिका में सन् 1546 ई० के आसपास मानी जाती है।


साहित्यिक परिचय-


मीराबाई बचपन से ही कृष्ण की भक्त थीं। गोपियों की भाँति माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थीं। वे कृष्ण को अपना पति कहती थीं और लोक-लाज खोकर कृष्ण के प्रेम में लीन रहती थीं। बचपन से ही अपना अधिक समय संत महात्माओं के सत्संग में व्यतीत करती थीं। मन्दिर में जाकर अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष मीराबाई आनन्द-विह्वल होकर नृत्य करती थीं। उनका इस प्रकार का व्यवहार उदयपुर की राजमर्यादा के प्रतिकूल था; अत: परिवार के लोग उनसे रुष्ट रहते थे।


रचनाएँ एवं कृतियाँ-


मीरा जिन पदों को गाती थीं तथा भाव-विभोर होकर नृत्य करती थीं, वे ही गेय पद उनकी रचना कहलाए। 'नरसीजी का मायरा', 'राग गोविन्द', 'राग सोरठ के पद', 'गीतगोविन्द की टीका', 'मीराबाई की मल्हार', 'राग विहाग' एवं फुटकर पद, तथा गरवा गीत आदि मीरा की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।


मीरा की फुटकल रचनाओं और पदों का संग्रह "मीराबाई की पदावली" नाम से किया गया है। इसके रुकमणी मंगल, नरसी जी का मायरा, फुटकर पद, मीरा की गरबी, मलार राग, नरसिंह मेडता की हुंडी, सुधा - सिन्धु आदि प्रमुख भाग हैं।


काव्य शैली या भाषा शैली-


मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पदशैली को अपनाया। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं। उनके गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती है। प्रियतम के समक्ष आत्म-समर्पण की भावना तथा तन्मयता ने उनके काव्य को मार्मिक तथा प्रभावोत्पादक बना दिया है।


कृष्ण के प्रति प्रेमभाव की व्यंजना ही मीराबाई की कविता का उद्देश्य रहा है। मीरा जीवन भर कृष्ण की वियोगिनी बनी रहीं । उनके काव्य में हृदय की आवेशपूर्ण विह्वलता देखने को मिलती है। मीरा की काव्य-भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा के निकट है तथा उस पर राजस्थानी, गुजराती, पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उनकी काव्य-भाषा अत्यन्त मधुर, सरस और प्रभावपूर्ण है। पाण्डित्य-प्रदर्शन करना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा। कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्णकाव्य के समुन्नत स्थल तक पहुँचाया।


इनकी रचनाओं में श्रंगार रस का प्रयोग प्रमुखता से किया गया है। इन्होंने वियोग श्रंगार तथा कहीं-कहीं शांत रस का भी प्रयोग किया है। इनके गेय पदों में कई रागों एवं छंदों का प्रयोग किया गया है।


भाव पक्ष और कला पक्ष-


पाण्डित्य-प्रदर्शन करना मीराबाई का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा । कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्णकाव्य के समुन्नत स्थल तक पहुँचाया। मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।


भाव पक्ष


मीराबाई ने गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति माना और गोपियों की ही भाँति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थीं। मीरा का जीवन कृष्णमय था और सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। मीरा ने "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई,  जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई । " कहकर पूरे समर्पण के साथ भक्ति की । मीरा के काव्य में विरह की तीव्र मार्मिकता पाई जाती है। विनय एवं भक्ति संबंधी पद भी पाए जाते हैं। मीरा के काव्य में श्रृंगार तथा शांत रस की धारा प्रवाहित होती है।


कला पक्ष


मीराबाई कृष्ण भक्त थी । काव्य रचना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा, इसलिए मीरा का कला पक्ष अनगढ़ है साहित्यिक ब्रजभाषा होते हुए भी उन पर राजस्थानी, गुजराती भाषा का विशेष प्रभाव है। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पदशैली को अपनाया। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं। उनके गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती है। संगीतात्मक प्रधान है श्रंगार के दोनों पक्षों का चित्रण हुआ है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता है। सरलता और सहायता ही मीरा के काव्य के विशेष गुण हैं।


पदावली-


मीराबाई की पदावली आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित है- 


बसो मेरे नैनन में नंदलाल । 

मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरुण तिलक दिए भाल। मोहनि मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल ।

 अधर- सुधा रस मुरली राजत, उर बैजंती माल ॥ 

 छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल। 

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल ||1||


पायो जी म्हैं तो राम रतन धन पायो । 

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो । जनम जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो । खरचैं नहिं कोई चोरं न लेवै, दिनदिन बढ़त सवायो।

 सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो ।

 मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख- हरख जस गायो ॥ 2 ॥


 माई री, मैं तो लियो गोविन्दो मोल | 

कोई कहै छाने, कोई कहै चुपके, लियो री बजन्ता ढोल| 

कोई कहै मुँहधो, कोई कहै मुँहधो, लियो री तराजू तोल । कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, लियो री अमोलक मोल ॥ याही कूँ सब जाणत हैं, लियो री आँखी खोल ।

 मीरा कूँ प्रभु दरसण दीन्यौ, पूरब जनम कौ कौल ॥ 3 ॥


मैं तो साँवरे के रंग राँची ।

साज सिंगार बाँधि पग घुघरू, लोक-लाज तजि नाँची ॥ गई कुमति लई साधु की संगति, भगत रूप भई साँची ॥ गाय गाय हरि के गुण निसदिन, काल ब्याल सँ बाँची ॥ उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची ॥ मीरा श्री गिरधरन लाल सूँ, भगति रसीली जाँची ॥4॥


मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

 जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई ।।

 तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई ॥ 

छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।

 संतन ढिंग बैठि -बैठि, लोक-लाज खोई ॥

 असुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम- बेलि बोई ॥

 अब तो बेल फैल गई, आणंद फल होई ॥

 भगति देखि राजी हुई, जगत देखि रोई ।

 दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोई ॥ 5 ॥


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प्रमुख रचनाएँ :-

  • नरसी जी का मायरा
  • रागगोविंद
  • गीत गोविन्द की टीका
  • राग सोरठा के पद
  • गरवा गीत

काल :- भक्ति काल ( सगुण काव्य धारा, कृष्ण भक्ति शाखा )

Frequently Asked Questions (FAQ) |


1. मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?


मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई० के लगभग राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में हुआ था।


2. मीरा बाई की मृत्यु कब और कहाँ हुई थी?


मीरा की मृत्यु सन् 1546 ई. में, रणछोड़ मंदिर, द्वारिका, गुजरात में हुई थी।


3. मीरा बाई का विवाह किससे हुआ था?


मीराबाई का विवाह उदयपुर के राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति की मृत्यु हो गयी।


4. मीराबाई की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए?


मीराबाई की प्रमुख रचनाएं- नरसीजी का मायरा, राग गोविन्द, राग सोरठ के पद, गीतगोविन्द की टीका, मीराबाई की मल्हार, राग विहाग एवं फुटकर पद, तथा गरवा गीत ।


5. मीराबाई को घर से क्यूँ निकाला गया?


बाई कृष्ण भक्ति में इतनी पागल हो गई थीं कि उन्हें दिन रात नाचते और गाते देखकर, उनके परिवार बालों ने उन्हें बिष देकर मारने की कोशिस की। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। इन सब से परेशान होकर मीरा पहले वृंदावन और बाद में द्वारिका चली गई। जहां वह कृष्ण भक्ति में पद गाती थीं, जिससे उन्हें प्रसिद्धि मिली। द्वारिका में ही उनकी मृत्यु हो गई।


6. मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु कौन थे?


मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु संत रविदास थे। मीरा के दादाजी राव जोधा साधू संतों का बड़ा सम्मान करते थे। एक बार इनके दरवार में रविदास नाम के एक संत पधारे, जिनके हाथों में कृष्ण की प्रतिमा देखकर, मीरा उसको पाने की जिध करने लगीं। उस संत रविदास ने उनकों वह प्रतिमा नहीं दी। परंतु दूसरे दिन फिर वह दरबार में पधारे और उनको वह प्रतिमा दे दी। और रविदास बताया कि स्वयं श्रीकृष्ण ने सपने में आकर मुझसे कहा कि मेरे सबसे प्रिय भक्त को प्रतिमा क्यूँ नहीं दी, मीरा मेरे विरह में रो रही है, उठो और उसको यह प्रतिमा दे दो। रविदास ने कहा कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा कैसे टाल सकता हूँ, इसीलिए प्रतिमा दे रहा हूँ। कुछ विद्वानों का मत है कि यह कहानी केवल कल्पना नहीं अपितु सत्य घटना है मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा है। मेरा ध्यान हरि की ओर है और मैं हरी के साथ एक रूप हो गई हूं। मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूं। मेरे गुरु रैदास ने मुझे गुरु मंत्र दिया है। हरी नाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया है।


7. मीरा के काव्य की विशेषता क्या है?


बाई के सभी पदमुक्तक काव्य शैली में हैं। इनके अधिकतर पद गेय हैं। इनकी पदावली एक दूसरे से भिन्न है। इनमें कथावस्तु का अभाव है, जो मुक्तक काव्य की विशेषता होती है। मुक्तक काव्य के लिए गहरी समझ और अनुभूति होना आवश्यक समझा जाता है। जो इनकी पदावली में प्रचुर मात्रा में मीरा के कृष्ण के विरह की झलक इनके पदों में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। कृष्ण के प्रति उनका प्रेम इतना तीव्र था कि वह संसार की सभी वस्तुओं को भूल गई थी। हंसते, गाते, रोते, सदा ही कृष्ण की धुन रहती थी।


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