UP board Class 12th Hindi Board paper full solution 2022 // यूपी बोर्ड कक्षा 12 वीं हिंदी बोर्ड का पेपर संपूर्ण हल 2022
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Up board 2022 paper: नमस्कार दोस्तों UP Board द्वारा कक्षा 12वी की वार्षिक परीक्षा 2022 का टाइम टेबल जारी कर दिया गया है। इसमें up बोर्ड ने स्पष्ट कर दिया है कि कक्षा 12वीं के वार्षिक परीक्षा पेपर 24 मार्च 2022 से 12 अप्रैल 2022 तक Conduct कराए जाएंगे।
UP board Class 12th Board Paper 2022 Download:
इस आर्टिकल के माध्यम से हम आपको UP board के कक्षा 12वी के Questions Paper Download किस प्रकार से कर सकते हैं, मात्र एक Click में आप 12th class के question paper download कर पाएंगे।
और यदि अभी तक आपने वार्षिक परीक्षा 2022 कक्षा 12वी का टाइम टेबल नहीं देखा है तो वह भी आप इस पोस्ट में देख पाएंगे।
उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड संक्षिप्त विवरण
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राज्य का नाम: उत्तर प्रदेश
शिक्षा बोर्ड का नाम: हाई स्कूल और इंटरमीडिएट शिक्षा बोर्ड उत्तर प्रदेश / उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद संस्था का नाम: शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश, उत्तर प्रदेश सरकार
परीक्षा तिथि: 24 मार्च से 20 अप्रैल तक। वार्षिक पेपर पेपर विषय: All Subjects आधिकारिक
वेबसाइट https://upmsp.edul
प्रश्र 1.
(क) (ii)माता भूमि
(ख)( iii)बिल्लेसुर बकरिहा
(ग) (i)मेरे विचार
(घ) (iv) ए. पी. जे. अब्दुल कलाम
(ड़) (iii) कहानी
प्रश्र 2. उत्तर
(क) (iii) अयोध्या सिंह उपाध्याय
(ख)(iv) साकेत
(ग) (iv) 'इत्यलम्'
(घ) (ii) लोकायतन
(ड़)(iv) 'हरी घास पर क्षण भर'
प्रश्न 3.( क)
उत्तर
उत्तर-
(क) देवों ने अनन्तकाल से भूमिका निर्माण किया है।
(ख) यह पृथिवी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है।
(ग) भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे, हमारी राष्ट्रयता भी उतनी ही अधिक बलवती हो सकेगी।
(घ) रेखांकित अंश की व्याख्या - डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार राष्ट्रीयता और पृथिवी का सम्बन्ध अटूट और अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसलिए पृथिवी के साथ राष्ट्रीयता का सम्बन्ध अथवा आधार जितना अधिक मजबूत होगा, उतना ही अधिक राष्ट्रीय भावनाओं का विकास भी सम्भव होगा। इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति का यह परम आवश्यक कर्त्तव्य एवं धर्म है कि वह पृथिवी के भौतिक स्वरूप से पूरी तरह से परिचित रहे। साथ ही उसके सौन्दर्य, उपयोगिता एवं महत्त्व की भी अधिकाधिक जानकारी रखे।
(ड) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के गद्य-भाग में संकलित एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित 'राष्ट्र का स्वरूप' शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
पाठ का नाम- राष्ट्र का स्वरूप।
लेखक का नाम-डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल।
प्रश्न 4.( क)
उत्तर
(क) श्री कृष्ण
(ख) श्री कृष्ण
(ग) राधा
(घ) रेखांकित अंश की व्याख्या-राधिका पवन-दूतिका से अपनी विरह-व्यथा का वर्णन करते हुए कहती है कि नए मेघों जैसी शोभा से युक्त और कमल के समान नेत्र वाले मेरे प्रिय श्रीकृष्ण मथुरा चले गए हैं और अभी तक वापस नहीं आए हैं। न ही उन्होंने वहाँ से मेरे लिए कोई संदेश भेजा है।
(ड़) प्रस्तुत पद महाकवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' द्वारा रचित 'प्रियप्रवास' से हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'पद्य-भाग' में संकलित 'पवन- दूतिका' शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
प्रश्न 5( क)
उत्तर
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
जीवन परिचय – हिन्दी के श्रेष्ठ निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 ई० में बलिया जिले के दूबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री अनमोल द्विवेदी ज्योतिष और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे; अत: इन्हें ज्योतिष और संस्कृत की शिक्षा उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। काशी जाकर इन्होंने संस्कृत-साहित्य और ज्योतिष का उच्च स्तरीय ज्ञान प्राप्त किया। इनकी प्रतिभा का विशेष विकास विश्वविख्यात संस्था शान्ति निकेतन में हुआ। वहाँ ये 11 वर्ष तक हिन्दी भवन के निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। वहीं इनके विस्तृत अध्ययन और लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ। सन् 1949 ई० में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी०लिट्० की उपाधि से तथा सन् 1957 ई० में भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित किया। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य किया तथा उत्तर प्रदेश सरकार की हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष रहे। तत्पश्चात् ये हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग के सभापति भी रहे। 19 मई, 1979 ई० को यह वयोवृद्ध साहित्यकार रुग्णता के कारण स्वर्ग सिधार गया।
रचनाएँ— आचार्य द्विवेदी का साहित्य बहुत विस्तृत है। इन्होंने अनेक विधाओं में उत्तम साहित्य की रचना की। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबन्ध संग्रह- 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'विचार प्रवाह', 'विचार और वितर्क', 'आलोक पर्व', 'कल्पलता'।
आलोचना - साहित्य–'सूरदास', 'कालिदास की लालित्य योजना', 'कबीर', 'साहित्य- सहचर', 'साहित्य का मर्म'।
इतिहास— 'हिन्दी साहित्य की भूमिका', 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल', - = 'हिन्दी-साहित्य' ।
उपन्यास–'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'चारुचन्द्रलेख', 'पुनर्नवा' और म 'अनामदास का पोथा'।
सम्पादन– 'नाथ सिद्धों की बानियाँ', 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो', 'सन्देश रासक' ।
अनूदित रचनाएँ– 'प्रबन्ध चिन्तामणि', 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह', 'प्रबन्धकोश' ३) 'विश्वपरिचय', 'लाल कनेर', 'मेरा बचपन' आदि।
प्रश्न 5. (ख)
महादेवी वर्मा जी का जीवन परिचय
जीवन-परिचय-महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद के एक शिक्षित कायस्थ परिवार में सन् 1907 ई० (संवत् 1963 वि०) में होलिका दहन के दिन हुआ था। इनके पिता श्री गोविन्दप्रसाद वर्मा, भागलपुर के एक कॉलेज में प्रधानाचार्य थे। इनकी माता हेमरानी परम विदुषी धार्मिक महिला थीं एवं नाना ब्रजभाषा के एक अच्छे कवि थे। महादेवी जी पर इन सभी का प्रभाव पड़ा और अन्ततः वे एक प्रसिद्ध कवयित्री, प्रकृति एवं परमात्मा की निष्ठावान् उपासिका और सफल प्रधानाचार्या के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में और उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई। संस्कृत से एम० ए० उत्तीर्ण करने के बाद ये प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्या हो गयीं। इनका विवाह 9 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। इनके पति श्री रूपनारायण सिंह एक डॉक्टर थे, परन्तु इनका दाम्पत्य जीवन सफल नहीं था। विवाहोपरान्त ही इन्होंने एफ०ए०, बी०ए० और एम०ए० परीक्षाएँ सम्मानसहित उत्तीर्ण कीं। महादेवी जी ने घर पर ही चित्रकला तथा संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की। इन्होंने नारी- -स्वातन्त्र्य के लिए संघर्ष किया, परन्तु अपने अधिकारों की रक्षा के लिए नारियों का शिक्षित होना भी आवश्यक बताया। कुछ वर्षों तक ये उत्तर प्रदेश विधान परिषद् की मनोनीत सदस्या भी रहीं। भारत के राष्ट्रपति से इन्होंने 'पद्मभूषण' की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से इन्हें 'सेकसरिया पुरस्कार' तथा 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' मिला। मई 1983 ई० में 'भारत-भारती' तथा नवम्बर 1983 ई० में यामा पर 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से इन्हें सम्मानित किया गया। 11 सितम्बर, 1987 ई० (संवत् 2044 वि०) को इस महान् लेखिका का स्वर्गवास हो गया।
रचनाएँ— महादेवी जी का प्रमुख कृतित्व इस प्रकार है
नीहार—यह इनका प्रथम प्रकाशित काव्य-संग्रह है।
रश्मि – इसमें आत्मा-परमात्मा विषयक आध्यात्मिक गीत हैं।
नीरजा- इस संग्रह के गीतों में इनकी जीवन-दृष्टि का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है।
सान्ध्यगीत– इसमें इनके शृंगारपरक गीतों को संकलित किया गया है।
दीपशिखा—इसमें इनके रहस्य-भावना-प्रधान गीतों का संग्रह है।
यामा– यह महादेवी जी के भाव-प्रधान गीतों का संग्रह है। इसके अतिरिक्त 'सन्धिनी', 'आधुनिक कवि' तथा 'सप्तपर्णा' इनके अन्य काव्य-संग्रह हैं। 'अतीत के चलचित्र', 'स्मृति की रेखाएँ', 'शृंखला की कड़ियाँ इनकी महत्त्वपूर्ण गद्य रचनाएँ हैं।
प्रश्न 6. (क)
पंचलाइट
फणीश्वरनाथ 'रेणु' जी हिन्दी-जगत् के सुप्रसिद्ध आंचलिक कथाकार हैं। अनेक जन-आन्दोलनों से वे निकट से जुड़े रहे, इस कारण ग्रामीण अंचलों से उनका निकट का परिचय है। उन्होंने अपने पात्रों की कल्पना किसी कॉफी हाउस में बैठकर नहीं की अपितु वे स्वयं अपने पात्रों के बीच रहे हैं। बिहार के अंचलों के सजीव चित्र इनकी कथाओं के अलंकार हैं। 'पंचलाइट' भी बिहार के आंचलिक परिवेश की कहानी है। शीर्षक कथा का केन्द्रबिन्दु है। शीर्षक को पढ़कर ही पाठक कहानी को पढ़ने के लिए उत्सुक हो जाता है।
इस कहानी के द्वारा 'रेणु' जी ने ग्रामीण अंचल का वास्तविक चित्र खींचा है। गोधन के द्वारा पेट्रोमैक्स जला देने पर उसकी सभी गलतियाँ माफ कर दी जाती हैं; उस पर लगे सारे प्रतिबन्ध हट जाते हैं तथा उसे मनोनुकूल आचरण की छूट भी मिल जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि आवश्यकता बड़े-से-बड़े रूढ़िगत संस्कार और परम्परा को व्यर्थ साबित कर देती है। कथानक संक्षिप्त रोचक, सरल, मनोवैज्ञानिक और यथार्थवादी है। इसी केन्द्रीय भाव के आधार पर कहानी के एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है।
इस प्रकार 'पंचलाइट' जलाने की समस्या और उसके समाधान के माध्यम से कहानीकार ने ग्रामीण मनोविज्ञान का सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। ग्रामवासी जाति के आधार पर किस प्रकार टोलियों में विभक्त हो जाते हैं और आपस में ईर्ष्या-द्वेष युक्त भावों से भरे रहते हैं, इसका बड़ा ही सजीव चित्रण इस कहानी में हुआ है। रेणु जी ने यह भी दर्शाया है कि भौतिक विकास के इस आधुनिक युग में भी भारतीय गाँव और कुछ जातियाँ कितने अधिक पिछड़े हुए हैं। कहानी के माध्यम से 'रेणु' जी ने अप्रत्यक्ष रूप से ग्राम-सुधार की प्रेरणा भी दी है।
प्रश्न 7. 'श्रवणकुमार' खण्डकाव्य के आधार पर उसके नायक श्रवणकुमार का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर - श्रवणकुमार प्रस्तुत खण्डकाव्य का प्रमुख पात्र है। 'श्रवणकुमार' की कथा आरम्भ से अन्त तक उसी से सम्बद्ध है; अत: इस खण्डकाव्य का नायक श्रवणकुमार है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मातृ-पितृभक्त– श्रवणकुमार अपने माता-पिता का एकमात्र आदर्श पुत्र है। वह प्रातःकाल से सायंकाल तक अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता-पिता की सेवा में लगा रहता है। दशरथ के बाण से बिद्ध होकर भी श्रवणकुमार को अपने प्यासे माता-पिता की ही चिन्ता सता रही है मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है। पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है ।
2. निश्छल एवं सत्यवादी-श्रवणकुमार के पिता वैश्य और माता शूद्र वर्ण की थीं। जब दशरथ ब्रह्म-हत्या की सम्भावना व्यक्त करते हैं, तो श्रवणकुमार उन्हें सत्य बता देता है वैश्य पिता माता शूद्रा थी मैं यो प्रादुर्भूत हुआ। संस्कार के सत्य भाव से मेरा जीवन पूत हुआ । श्रवणकुमार स्पष्टवादी है। वह किसी से कुछ नहीं छिपाता। वह सत्यकाम, जाबालि आदि के समान ही अपने कुल, गोत्र आदि का परिचय देता है।
3. क्षमाशील एवं सरल स्वभाव वाला— श्रवणकुमार का स्वभाव बहुत ही सरल है। उसके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध एवं वैर नहीं है। दशरथ के बाण से बिद्ध होने पर भी वह अपने समीप आये सन्तप्त दशरथ का सम्मान ही करता है।
4. भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी- श्रवणकुमार भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी है। धर्म के दस लक्षणों को वह अपने जीवन में धारण किये है—
दम अस्तेय अक्रोध सत्य धृति, विद्या क्षमा बुद्धि सुकुमार । शौच तथा इन्द्रिय-निग्रह हैं, दस सदस्य मेरे परिवार ॥
वेद के अनुसार माता, पिता, गुरु, अतिथि तथा पति के लिए पत्नी और पत्नी के लिए पति ये पाँच 'देवता' कहलाते हैं तथा ये ही पूजा के योग्य के हैं। श्रवणकुमार भी माता, पिता, गुरु और अतिथि की देवतुल्य पूजा करता है।
5. आत्मसन्तोषी- -श्रवणकुमार को किसी वस्तु के प्रति लोभ-मोह नहीं है। उसे भोग एवं ऐश्वर्य की तनिक भी चाह नहीं है। वह तो सन्तोषी स्वभाव का है
वल्कल वसन विटप देते हैं, हमको इच्छा के अनुकूल नहीं कभी हमको छू पाती, भोग ऐश्वर्य वासन्न-धूल |
6. संस्कार को महत्त्व देने वाला-श्रवणकुमार समदर्शी है। वह कर्म, शील एवं संस्कारों को महत्त्व देता है। उसके जीवन में पवित्रता संस्कारों के प्रभाव के कारण ही है
विप्र द्विजेतर के शोणित में अन्तर नहीं रहे यह ध्यान । नहीं जन्म के संस्कार से, मानव को मिलता सम्मान |
इस प्रकार श्रवणकुमार उदार, परोपकारी, सर्वगुणसम्पन्न तथा खण्डकाव्य का नायक है।
प्रश्न 8. (क)
उत्तर
सन्दर्भ-यह गद्य-खण्ड हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'संस्कृत-भाग' में संकलित 'महामना मालवीयः' नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद महामना विद्वान् वक्ता (भाषणकर्त्ता), धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किन्तु इनका सर्वोच्च गुण जनसेवा ही था। जहाँ कहीं भी ये लोगों को दुःखित और पीड़ित देखते थे, वहीं शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा इनका स्वभाव ही था।
आज हमारे बीच विद्यमान न होने पर भी महामना मालवीय अमूर्त रूप से अपने यश का प्रकाश फैलाते हुए घोर अन्धकार में डूबे मनुष्यों को सन्मार्ग दिखाते हुए स्थान-स्थान पर प्रत्येक मनुष्य के अन्दर उपस्थित हैं ही।
प्रश्र 9. (ख)
उत्तर
कलई खुलना (भेद खुलना) -राजीव ने अपने अधिकारी के भ्रष्टाचार की कलई खोलकर कई रहस्यों पर से पर्दा उठा दिया।
प्रश्न 10. (क)
(1)
उत्तर
(स) कवि + इन्द्र
(2)
(अ) देव+ ईश:
3. (द)
नौ+ इक:
प्रश्न 11. क
उत्तर
1.
(स) लगातार और सुन्दर
2.
(क) बादल और समुद्र
प्रश्न 11 (ख)
मित्र – शखा, दोस्त
प्रश्न 11( ग)
आस्तिक
प्रश्न 12 (क)
करुण रस
परिभाषा-करुण रस का स्थायी भाव शोक है। शोक नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग करता है, तब 'करुण रस' की निष्पत्ति होती है।
उदाहरण
मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन सा पटक रही थी शीश। अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ॥ श्रवण कुमार की मृत्यु पर उनकी माता के विलाप का यह उदाहरण करुण रस का उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्पष्टीकरण- 1. स्थायी भाव-शोक।
2. विभाव
(क) आलम्बन - श्रवण। आश्रय-पाठक।
(ख) उद्दीपन-दशरथ की उपस्थिति।
3. अनुभाव – सिर पटकना, प्रलाप करना आदि।
4. संचारी भाव-स्मृति, विषाद आदि।
श्लेष अलंकार -जब एक शब्द एक ही बार प्रयुक्त होता है, किन्तु उसके दो या दो से अधिक अर्थ होते हैं, तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर । को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ।।
स्पष्टीकरण- इस उदाहरण में 'वृषभानुजा' और 'हलधर' शब्द एक ही बार आये हैं, किन्तु उनके अर्थ अनेक हैं— (1) वृषभानुजा = (i) राजा वृषभानु की पुत्री राधा तथा (ii) वृषभ (बैल) की बहन गाय। (2) हलधर—(i) बलराम तथा (ii) बैल। यहाँ 'वृषभानुजा' तथा 'हलधर' शब्द में श्लेष अलंकार है।
दोहा
दोहा अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे (विषम) चरणों में 13, 13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे (सम) चरणों में 11, 11 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ ।
जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित दुति होड़ ॥
निबन्ध
विज्ञान वरदान या अभिशाप
प्रमुख विचार-बिन्दु – (1) प्रस्तावना, (2) विज्ञान : वरदान के रूप में (i) यातायात के क्षेत्र में; (ii) संचार के क्षेत्र में; (iii) दैनन्दिन जीवन में; (iv) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में; (v) औद्योगिक क्षेत्र में; (vi) कृषि के | क्षेत्र में; (vii) शिक्षा के क्षेत्र में; (viii) मनोरंजन के क्षेत्र में, (3) विज्ञान : | अभिशाप के रूप में, (4) उपसंहार।
प्रस्तावना- आज का युग वैज्ञानिक चमत्कारों का युग है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज विज्ञान ने आश्चर्यजनक क्रान्ति ला दी है। मानव-समाज की सारी गतिविधियाँ आज विज्ञान से परिचालित हैं। दुर्जेय प्रकृति पर विजय प्राप्त कर आज विज्ञान मानव का भाग्यविधाता बन बैठा है। अज्ञात रहस्यों की खोज में उसने आकाश की ऊँचाइयों से लेकर पाताल की गहराइयाँ तक नाप दी हैं। उसने हमारे जीवन को सब ओर से इतना प्रभावित कर दिया है कि विज्ञान-शून्य विश्व की आज कोई कल्पना तक नहीं कर सकता, किन्तु दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि अनियन्त्रित वैज्ञानिक प्रगति ने मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इस स्थिति में हमें सोचना पड़ता है कि विज्ञान को वरदान समझा जाए या अभिशाप । अतः इन दोनों पक्षों पर समन्वित दृष्टि से विचार करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उचित होगा।
विज्ञान: वरदान के रूप में आधुनिक मानव का सम्पूर्ण पर्यावरण विज्ञान के वरदानों के आलोक से आलोकित है। प्रातः जागरण से लेकर रात के सोने तक के सभी क्रिया-कलाप विज्ञान द्वारा प्रदत्त साधनों के सहारे ही संचालित होते हैं। प्रकाश, पंखा, पानी, साबुन, गैस स्टोव, फ्रिज, कूलर, हीटर और यहाँ तक कि शीशा, कंघी से लेकर रिक्शा, साइकिल, स्कूटर, बस, कार, रेल, हवाई जहाज, टी०वी०, सिनेमा, रेडियो आदि जितने भी साधनों का हम अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं, वे सब विज्ञान के ही वरदान हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि आज का अभिनव मनुष्य विज्ञान के माध्यम से प्रकृति पर विजय पा चुका है
आज की दुनिया विचित्र नवीन,प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन। हैं बँधे नर के करों में वारि-विद्युत भाष,हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप । है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,लाँघ सकता नर सरित-गिरि-सिन्धु एक समान ॥ विज्ञान के इन विविध वरदानों की उपयोगिता कुछ प्रमुख क्षेत्रों में निम्नलिखित
(1) यातायात के क्षेत्र में प्राचीन काल में मनुष्य को लम्बी यात्रा तय करने में वर्षों लग जाते थे, किन्तु आज रेल, मोटर, जलपोत, वायुयान आदि के आविष्कार से दूर-से-दूर स्थानों पर बहुत शीघ्र पहुँचा जा सकता है। यातायात और परिवहन की उन्नति से व्यापार की भी कायापलट हो गयी है। मानव केवल धरती ही नहीं, अपितु चन्द्रमा और मंगल जैसे दूरस्थ ग्रहों तक भी पहुँच गया है। अकाल, बाढ़, सूखा आदि प्राकृतिक विपत्तियों से पीड़ित व्यक्तियों की सहायता के लिए भी ये साधन बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इन्हीं के चलते आज सारा विश्व एक बाजार बन गया है।
(ii) संचार के क्षेत्र में-बेतार के तार ने संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है। आकाशवाणी, दूरदर्शन, तार, दूरभाष (टेलीफोन, मोबाइल फोन), दूरमुद्रक (टेलीप्रिण्टर, फैक्स) आदि की सहायता से कोई भी समाचार क्षण भर में विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाया जा सकता है। कृत्रिम उपग्रहों ने इस दिशा में और भी चमत्कार कर दिखाया है।
(iii) दैनन्दिन जीवन में विद्युत् के आविष्कार ने मनुष्य की दैनन्दिन सुख-सुविधाओं को बहुत बढ़ा दिया है। वह हमारे कपड़े धोती है, उन पर प्रेस करती है, खाना पकाती है, सर्दियों में गर्म जल और गर्मियों में शीतल जल उपलब्ध कराती है, गर्मी-सर्दी दोनों से समान रूप से हमारी रक्षा करती है। आज की समस्त औद्योगिक प्रगति इसी पर निर्भर है।
(iv) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में -मानव को भयानक और संक्रामक रोगों से पर्याप्त सीमा तक बचाने का श्रेय विज्ञान को ही है। कैंसर, क्षय (टी०बी०), हृदय रोग एवं अनेक जटिल रोगों का इलाज विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। एक्स-रे एवं अल्ट्रासाउण्ड टेस्ट, ऐन्जियोग्राफी, कैट या सीटी स्कैन आदि परीक्षणों के माध्यम से शरीर के अन्दर के रोगों का पता सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है। भीषण रोगों के लिए आविष्कृत टीकों से इन रोगों की रोकथाम सम्भव हुई है। प्लास्टिक सर्जरी, ऑपरेशन, कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण आदि उपायों से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलायी जा रही है। यही नहीं, इससे नेत्रहीनों को नेत्र, कर्णहीनों को कान और अंगहीनों को अंग देना सम्भव हो सका है।
(v) औद्योगिक क्षेत्र में- भारी मशीनों के निर्माण ने बड़े-बड़े कल कारखानों को जन्म दिया है, जिससे श्रम, समय और धन की बचत के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में उत्पादन सम्भव हुआ है। इससे विशाल जनसमूह को आवश्यक वस्तुएँ सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करायी जा "सकी हैं।
(vi) कृषि के क्षेत्र में लगभग 121 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला हमारा देश आज यदि कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो सका है, तो यह भी विज्ञान की ही देन है। विज्ञान ने किसान को उत्तम बीज, प्रौढ़ एवं विकसित तकनीक, रासायनिक खादें, कीटनाशक, ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और बिजली प्रदान की है। छोटे-बड़े बाँधों का निर्माण कर नहरें निकालना भी विज्ञान से ही सम्भव हुआ है।
(vii) शिक्षा के क्षेत्र में मुद्रण-यन्त्रों के आविष्कार ने बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन सम्भव बनाया है, जिससे पुस्तकें सस्ते मूल्य पर मिल सकी हैं। इसके अतिरिक्त समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि भी मुद्रण-क्षेत्र में हुई क्रान्ति के फलस्वरूप घर-घर पहुँचकर लोगों का ज्ञानवर्द्धन कर रही हैं। आकाशवाणी-दूरदर्शन आदि की सहायता से शिक्षा के प्रसार में बड़ी सहायता मिली है। कम्प्यूटर के विकास ने तो इस क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है।
(viii) मनोरंजन के क्षेत्र में चलचित्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के आविष्कार ने मनोरंजन को सस्ता और सुलभ बना दिया है। टेपरिकॉर्डर, वी०सी०आर०, वी०सी०डी० आदि ने इस दिशा में क्रान्ति ला दी है और मनुष्य को उच्चकोटि का मनोरंजन सुलभ कराया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव जीवन के लिए विज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई वरदान नहीं है।
विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान का एक और पक्ष भी है। विज्ञान एक असीम शक्ति प्रदान करने वाला तटस्थ साधन है। मानव चाहे जैसे इसका इस्तेमाल कर सकता है। सभी जानते हैं कि मनुष्य में दैवी प्रवृत्ति भी है और आसुरी प्रवृत्ति भी। सामान्य रूप से जब मनुष्य की दैवी प्रवृत्ति प्रबल रहती है तो वह मानव-कल्याण से कार्य किया करता है, परन्तु किसी भी समय मनुष्य की राक्षसी प्रवृत्ति प्रबल होते ही कल्याणकारी विज्ञान एकाएक प्रबलतम विध्वंस एवं संहारक शक्ति का रूप ग्रहण कर सकता है। इसका उदाहरण गत विश्वयुद्ध का वह दुर्भाग्यपूर्ण पल है, जब कि हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम-बम गिराया गया था। स्पष्ट है कि विज्ञान मानवमात्र के लिए सबसे बुरा अभिशाप भी सिद्ध हो सकता है। गत विश्वयुद्ध से लेकर अब तक मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की है; अतः कहा जा सकता है कि आज विज्ञान की विध्वंसक शक्ति । पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गयी है।
विध्वंसक साधनों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार से भी विज्ञान ने मानव का अहित किया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथ्यात्मक होता है। इस दृष्टिकोण के विकसित हो जाने के परिणामस्वरूप मानव हृदय की कोमल भावनाओं एवं अटूट आस्थाओं को ठेस पहुँची है। विज्ञान ने भौतिकवादी प्रवृत्ति को प्रेरणा दी है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म एवं अध्यात्म से सम्बन्धित विश्वास थोथे प्रतीत होने लगे हैं। मानव-जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध भी कमजोर होने लगे हैं। अब मानव भौतिक लाभ के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करता है।
जहाँ एक ओर विज्ञान ने मानव-जीवन को अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं दूसरी ओर विज्ञान के ही कारण मानव-जीवन अत्यधिक खतरों से परिपूर्ण तथा असुरक्षित भी हो गया है। कम्प्यूटर तथा दूसरी मशीनों ने यदि मानव को सुविधा के साधन उपलब्ध कराये हैं तो साथ-साथ रोजगार के अवसर भी छीन लिये हैं। विद्युत विज्ञान द्वारा प्रदत्त एक महान् देन है, परन्तु विद्युत का एक मामूली झटका ही व्यक्ति की इहलीला समाप्त कर सकता है। विज्ञान ने तरह-तरह के तीव्र गति वाले वाहन मानव को दिये हैं। इन्हीं वाहनों की आपसी टक्कर से प्रतिदिन हजारों व्यक्ति सड़क पर ही जान गँवा देते हैं। विज्ञान के दिन-प्रतिदिन होते जा रहे नवीन आविष्कारों के कारण मानव पर्यावरण असन्तुलन के दुश्चक्र में भी फँस चुका है। के
अधिक सुख-सुविधाओं के कारण मनुष्य आलसी और आरामतलब बनता जा रहा है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति का ह्रास हो रहा है और अनेक नये-नये रोग भी उत्पन्न हो रहे हैं। मानव में सर्दी और गर्मी सहने की क्षमता घट गयी है।
वाहनों की बढ़ती संख्या से सड़कें पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो रही हैं तो उनसे निकलने वाले ध्वनि प्रदूषक मनुष्य को स्नायु रोग वितरित कर रहे हैं। सड़क दुर्घटनाएँ तो मानो दिनचर्या का एक अंग हो चली हैं। विज्ञापनों ने प्राकृतिक सौन्दर्य को कुचल डाला है। चारों ओर का कृत्रिम आडम्बरयुक्त जीवन इस विज्ञान की ही देन है। औद्योगिक प्रगति ने पर्यावरण-प्रदूषण की विकट समस्या खड़ी कर दी है। साथ ही गैसों के रिसाव से अनेक व्यक्तियों के प्राण भी जा चुके हैं।
विज्ञान के इसी विनाशकारी रूप को दृष्टि में रखकर महाकवि दिनकर मानव को चेतावनी देते हुए कहते हैं
सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार। तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार ॥ खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार । काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ।।
उपसंहार–विज्ञान सचमुच तलवार है, जिससे व्यक्ति आत्मरक्षा भी कर सकता है और अनाड़ीपन में अपने अंग भी काट सकता है। इसमें दोष तलवार का नहीं, उसके प्रयोक्ता का है। विज्ञान ने मानव के सम्मुख असीमित विकास का मार्ग खोल दिया है, जिससे मनुष्य संसार से बेरोजगारी, भुखमरी, महामारी आदि को समूल नष्ट कर विश्व को अभूतपूर्व सुख-समृद्धि की ओर ले जा सकता है। अणु-शक्ति का कल्याणकारी कार्यों में उपयोग असीमित सम्भावनाओं का द्वार उन्मुक्त कर सकता है। बड़े-बड़े रेगिस्तानों को लहराते खेतों में बदलना, दुर्लंघ्य पर्वतों पर मार्ग बनाकर दूरस्थ अंचलों में बसे लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना, विशाल बाँधों का निर्माण एवं विद्युत उत्पादन आदि अगणित कार्यों में इसका उपयोग हो सकता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब मनुष्य में आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो, मानव-कल्याण की सात्विक भावना जगे। अतः स्वयं मानव को ही यह निर्णय करना है कि वह विज्ञान को वरदान रहने दे या अभिशाप बना दे।
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