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साहित्य समाज का दर्पण है || Sahitya samaj Ka darpan hai

साहित्य समाज का दर्पण है निबंध || Sahitya samaj Ka darpan hai


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साहित्य समाज का दर्पण है निबंध इन हिंदी / Sahitya samaj Ka darpan essay


साहित्य समाज का दर्पण है / Sahitya samaj Ka darpan hai nibandh in Hindi



नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेबसाइट bandana classes.com पर। दोस्तों आज की पोस्ट में हम आपकी बोर्ड परीक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण topic "साहित्य समाज का दर्पण है", इस विषय पर आपको जानकारी देंगे। दोस्तों हम सभी जानते हैं कि यदि निबंध में बहुत अच्छे अंक हासिल करना हो तो निबंध की भाषा शैली व्याकरण आधी उच्च कोटि की होनी चाहिए। इसी को ध्यान में रखते हुए आज की पोस्ट में हमने बहुत ही अच्छे ढंग से साहित्य समाज का दर्पण है इसने निबंध को आप को समझाने की कोशिश की है। दोस्तों यह तो सभी जानते हैं कि साहित्य का व्यापक प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। जिस देश का जैसा साहित्य होता है, उस देश की पीढ़ी भी वैसा ही आचरण करती है। यदि साहित्य अच्छा होगा तो वहां के नागरिकों का आचरण भी अच्छा होगा। दोस्तों साहित्य समाज का दर्पण है इस निबंध का सार यही है कि जैसा साहित्य होगा, वैसे ही उस देश के लोग होंगे। दोस्तों यदि आज की पोस्ट पसंद आए तो इसे अपने दोस्तों में और सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक शेयर करिएगा।




साहित्य और समाज

या 

साहित्य समाज का दर्पण है?



प्रमुख विचार बिंदु- (1) साहित्य क्या है?     (2) साहित्य की कतिपय परिभाषाएं   (3) समाज क्या हैं?  (4) साहित्य और समाज का पारस्परिक संबंध : साहित्य समाज का दर्पण   (5) साहित्य की रचना  - प्रक्रिया (6) साहित्य का समाज पर प्रभाव  (7) उपसंहार।




साहित्य क्या है?


'साहित्य' शब्द 'सहित' से बना है। 'सहित' का भाव ही साहित्य कहलाता है। 'सहित' के दो अर्थ है- साथ एवं हितकारी (स + हित = हितसहित) या कल्याणकारी। यहां 'साथ' से आशय है- शब्द और अर्थ का साथ अर्थात सार्थक शब्दों का प्रयोग। सार्थक शब्दों का प्रयोग तो ज्ञान विज्ञान की सभी शाखाएं करते हैं। तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है? वस्तुत: साहित्य का ज्ञान विज्ञान की समस्त शाखा से स्पष्ट अंतर है - (1) ज्ञान विज्ञान की शाखाएं बुद्धि प्रधान या तर्कप्रधान होती हैं जबकि साहित्य ह्रदय प्रधान। (2) यह शाखाएं तथ्यात्मक है जबकि साहित्य कल्पनात्मक। (3) ज्ञान विज्ञान की शाखाओं का मुख्य लक्ष्य मानव की भौतिक सुख समृद्धि एवं सुविधाओं का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अंतः करण का परिष्कार करते हुए, उसमें सदप्रवृत्तियां का संचार करना है। आनंद प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है, तो मानव मन का उन्नयन उसकी सार्थकता। (4) ज्ञान विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार तत्व) प्रधान होता है, कथन- शैली गौण। वस्तुतः भाषा शैली वहां विचार अभिव्यक्ति की साधन मात्र है। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य थे से अधिक सहेली का महत्व है। उदाहरणार्थ-


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जल उठा स्नेह दीपक- सा नवनीत  हृदय था मेरा,

अब शेष धूम रेखा से चित्रित कर रहा अंधेरा।


कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोग काल में जो हृदय हर्षोल्लास से भरा रहता था,  वही अब उसके वियोग में गहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिसका अनुभव प्रत्येक प्रेमी ह्रदय करता है है, किंतु कवि ने दीपक के रूपक द्वारा इसी साधारण सी बात को अत्यधिक चमत्कार पूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।


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स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य  और कथन- शैली (अभिव्यक्ति) दोनों का समान महत्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान- विज्ञान की शेष शाखाओं से अलग करने के लिए पर्याप्त है।




साहित्य की कतिपय परिभाषाएं


मुंशी प्रेमचंद जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते हैं, "सत्य से आत्मा का संबंध तीन प्रकार का है - एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनंद का। जिज्ञासा का संबंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का संबंध विज्ञान का विषय है और आनंद का संबंध केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहां आनंद का स्रोत बन जाता है, वही वह साहित्य हो जाता है।" इस बात को विश्वकवि रविंद्र नाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, "जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रूप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनंदरूप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूं।" प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक द क्वनसी (De Quincey) के अनुसार, साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावादी ना होकर मानवतावादी है। "ज्ञान- विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव का ज्ञान वर्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अंतः विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्त प्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।"


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समाज क्या है ?


एक ऐसा मानव समुदाय, जो किसी निश्चित भूभाग पर रहता हो, समान परंपराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो एवं एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।



साहित्य और समाज का पारस्परिक संबंध


समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध है। साहित्य का जन्म वस्तुतः समाज से ही होता है। साहित्यकार इसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परंपराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य रचना करता है और अपने कृति में है इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकार अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा अपने समाज की आशाओं - आकांक्षाओं, सुखो- दु:खों, संघर्षों, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है और उसका प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरूप को पहचानता है और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी कारण किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज का एक समग्र चित्र मानस पटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।


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साहित्य की रचना - प्रक्रिया



समर्थ साहित्यकार अपनी अतलस्पर्शने प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है, उसकी सफलताओं - असफलताओं,  उपलब्धियों - अभावों,  क्षमताओं - दुर्बलताओं एवं संगतियों - विसंगतियों की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात विकृतियों और समस्याओं के मूल कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री  चयन करता है। और फिर समस्त बिखरी हुई, परस्पर संबंध एवं अति साधारण सी डी पढ़ने वाली सामग्री को संयोजित कर उसे अपने नव 'नवोन्मेषशालिनी' कल्पना के सांचे में डालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं स्वस्थ और प्रदान करता है कि सहृदयता अगस्त विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है। कलाकार का विशिष्ट इसी में है कि उसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वजनिक सर्व का लेख बन जाए और अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए निरंतर मानव मूल्यों से मंडित भी हो। उसकी रचना ना केवल अपने युग अपितु आने वाले लोगों के लिए भी नव स्फूर्ति का अस्त्र स्रोत बन जाए और अपने देश काल की उपेक्षा ना करते हुए देश कालातीत होकर मानव मात्र की अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान साहित्यकार किसी विशेष देश जाति धर्म एवं भाषा शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व को अपना बना देते हैं;  उदाहरणार्थ- वाल्मीकि,  व्यास,  कालिदास,  तुलसीदास,  विलियम शेक्सपियर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानव मात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं।


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साहित्य का समाज पर प्रभाव


साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का  चयन करता है; अत: समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।

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जैसा कि ऊपर संकेतिक किया गया है कि महान साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वर दत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतल स्पर्शने अंतर्दृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों  या समस्याओं के मूल हर क्षण पहुंच जाता है, जबकि राजनीतिक,  समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं, साहित्यकार रोग का जो निदान करता और उपचार सुझाता है,  वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा है कि " साहित्य राजनीति के आगे मसाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं।" अंग्रेज कवि शैली ने कवियों को 'विश्व के अघोषित विधायक'  (Un- acknowledged legislators of the world) कहा है।

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प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और दृष्टा कहा है। साहित्यकार कितना बड़ा दृष्टा होता है,  इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। आज से लगभग 70 - 75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनंदन खत्री ने अपने  तिलिस्मी उपन्यास‌ 'रोहतासमठ' में यंत्र मानव (robot) अशोका विश्व में कारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोल- कल्पित लगा ; क्योंकि उस काल में यंत्रमानव की बात किसी ने सोची ना थी,  किंतु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगति कर ली है, यह देख श्री खत्री की नव नवोन्मेष - शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पुष्पक विमान के विषय में पढ़ना कल्पना मात्र लगता होगा,  लेकिन आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।

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साहित्य द्वारा सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियों के उल्लेखों से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। संपूर्ण यूरोप को गंभीर रूप से आंदोलित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रांति (1789 ईसवी), रूसो की 'ला कोंत्रा सोशियल' (La Contra Social - सामाजिक - अनुबंध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों ने इंग्लैंड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन करा कर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।

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आधुनिक युग में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में कृषको पर जमींदारों के अत्यधिक अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के  चित्रों ने समाज को जमीदारी उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरतचंद ने अपने उपन्यासों में कन्याओं के बाल- विवाह की अमानवीयता एवं विधवा- विवाह- निषेध की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अंततः बाल विवाह को कानून द्वारा निषेध घोषित किया गया एवं विधवा विवाह का प्रचलन हुआ।


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उपसंहार


निष्कर्ष यही है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। साहित्य समाज से ही उद्भूत होता है ; क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है। वह इसी से प्रेरणा ग्रहण कर साहित्य- रचना करता है एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किंतु साहित्यकार की महत्ता इसमें है कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी में बंधकर नहीं रह जाए,  अपितु अपनी रचनाओं से निरंतर मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देश कालातीत बनकर संपूर्ण मानवता को नई ऊर्जा एवं प्रेरणा से स्पंदित करें। इसी कारण साहित्य को विश्व- मानव की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है, जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान- से- मूल्यवान वस्तु भी नहीं कर सकती; क्योंकि संसार का संपूर्ण ज्ञान- विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है जबकि एकमात्र साहित्य ही उसकी आत्मा का पोषक है। एक अंग्रेज विद्वान ने कहा है कि "यदि कभी संपूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए किंतु केवल शेक्सपियर बचे रहे तो अंग्रेज जाति नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी।"  ऐसे युग संस्था और युग दृष्टा कलाकारों के सम्मुख संपूर्ण मानवता कृतज्ञता पूर्वक नतमस्तक होकर उन्हें अपने हृदय- सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है एवं उनके यश को अमर बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यह शुरू ही शरीर से इस धरा धाम पर सदा अजर- अमर बने रहते हैं।







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