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भारतेन्दु हरिश्चंद्र जीवन परिचय / bhartendu harishchandra ka jeevan parichay

भारतेन्दु हरिश्चंद्र जीवन परिचय / bhartendu harishchandra ka jeevan parichay

                                         भारतेन्दु हरिश्चंद्र 

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जीवन परिचय, bhartendu harishchandra ji ka jeevan parichay, bharteyndu ji ka jivan Parichay
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जीवन परिचय

जीवन परिचय

संक्षिप्त परिचय-

हिंदी साहित्य गगन के इन्दु भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म सन 1850 ईस्वी में काशी के एक संभ्रात वैश्य परिवार में हुआ था. इनके पिता बाबू  गोपालचंद्र गिरधरदास ब्रज भाषा में कविता करते थे. इन्होने पाँच वर्ष की अवस्था में ही एक दोहा रचकर अपने कवि पिता से सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था. दुर्भाग्य से 5 वर्ष की अवस्था में माता और 10 वर्ष की अवस्था में इनके पिता का स्वर्गवास हो गया. इन्होने स्वाद्ध्याय से ही उर्दू , फ़ारसी , हिंदी , संस्कृत और बांग्ला भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

   इन्होंने विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं का संपादन किया और हिंदी साहित्य की समृद्धि के लिए धन को पानी की तरह बहा दिया.

 35 वर्ष की अल्पायु में ही सन 1885 ईस्वी में ये दिवंगत हो गए.

कृतियां ( रचनायें )

  1. प्रेम माधुरी
  2. सतसई श्रृंगार
  3. विजय पताका
  4. विजय वल्लरी

साहित्य में स्थान - हरिश्चंद्र ही एक मात्र ऐसे सर्वश्रेष्ठ कवि हैं जिन्होंने अन्य किसी भी भारतीय लेखक की अपेक्षा देशी बोली में रचित साहित्य को लोकप्रिय बनाने में सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया.

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Bhartendu harishchandra ka jivan Parichay

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय Bhartendu harishchandra ka jivan Parichay


जीवन परिचय- युग प्रवर्तक साहित्यकार एवं असाधारण प्रतिभा संपन्न भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 1850 ईस्वी में काशी में हुआ था। इनके पिता गोपालचंद्र 'गिरिधरदास' ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे।

बाल्यकाल में मात्र 10 वर्ष की अवस्था में ही यह माता पिता के सुख से वंचित हो गए थे।


भारतेंदु हरिश्चंद्र की आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, जहां इन्होंने हिंदी, उर्दू ,बांग्ला एवं अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का अध्ययन किया। इसके पश्चात इन्होंने' क्वींस कॉलेज 'में प्रवेश लिया किंतु काव्यरचना में रुचि होने के कारण इनका का मन अध्ययन में नहीं लग सका; परिणाम स्वरूप इन्होंने शीघ्र ही कॉलेज छोड़ दिया। काव्य रचना के अतिरिक्त इनकी रूचि यात्राओं में भी थी। अवकाश के समय यह विभिन्न स्थानों की यात्राएं किया करते थे। भारतेंदु जी बड़े ही उदार एवं दानी पुरुष थे। अपनी उदारता के कारण शीघ्र ही इनकी आर्थिक दशा सोचनीय हो गई और यह ऋण ग्रस्त हो गए। ऋणग्रस्तता के समय  ही ये छह रोग के भी शिकार हो गए। इन्होंने इस रोग से मुक्त होने का हर संभव उपाय किया, किंतु मुक्त नहीं हो सके। 1885 ईस्वी में किसी रोग के कारण मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में भारतेंदु जी का स्वर्गवास हो गया।


कवि परिचय -एक दृष्टि में


नाम

भारतेंदु हरिश्चंद्र

पिता का नाम

बाबू गोपालचंद्र 'गिरिधरदास'

जन्म

सन 1850 ई.

जन्म स्थान

काशी

शिक्षा

स्वाध्याय के माध्यम से विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया

संपादन

कवि -वचन -सुधा ,हरिश्चंद्र ,मैगजीन, हरीशचंद्र चंद्रिका

लेखन विधा

कविता ,नाटक ,एकांकी ,निबंध ,उपन्यास प,त्रकारिता

भाषा शैली

भाषा- ब्रज भाषा एवं खड़ी बोली शैली -मुक्तक

प्रमुख रचनाएं

नीलदेवी, प्रेमजोगिनी ,भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, कर्पूरमंजरी, सुलोचना

निधन

सन 1885ई.

साहित्य में स्थान

हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका


साहित्यिक परिचय-  भारतेंदु जी बाल्यावस्था से ही काव्य -रचनाएं करने लगे थे। अपनी काव्य रचनाओं में ये ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे। कुछ ही समय के पश्चात इनका ध्यान हिंदी गद्य की ओर आकृष्ट हुआ। उस समय हिंदी गद्य की कोई निश्चित भाषा नहीं थी। रचनाकार गद्य के विभिन्न रूपों को अपनाए हुए थे। भारतेंदु जी का ध्यान इस अभाव की ओर आकृष्ट हुआ। इस समय बांग्ला गद्य साहित्य विकसित अवस्था में था। भारतेंदु जी ने बांग्ला के नाटक 'विद्यासुंदर'‌ का हिंदी में अनुवाद किया और उसमें सामान्य बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करके भाषा के नवीन रूप का बीजारोपण किया।


सन 1868 ई. भारतेंदु जी ने 'कवि- वचन -सुधा' नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके 5 वर्ष उपरांत सन 1873 ई. में इन्होंने केक दूसरी पत्रिका 'हरिश्चंद्र मैगजीन' का संपादन प्रारंभ किया। आंखों के बाद इस पत्रिका का नाम 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' हो गया। हिंदी गद्य का परिष्कृत रूप सर्वप्रथम इसी पत्रिका में दृष्टिगोचर हुआ। वस्तुतः हिंदी गद्य को नया रूप प्रदान करने का श्रेय इसी पत्रिका को दिया जाता है।


भारतेंदु जी ने नाटक निबंध तथा यात्रावृत्त आदि विभिन्न विधाओं में गद्य रचना की। इसके समकालीन सभी लेखक इन्हें अपना आदर्श मानते थे और इनसे दिशा निर्देश प्राप्त करते थे। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन पत्रकारों में सन 1880 ई. मैं इन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि से सम्मानित किया गया।


कृतियां- अल्पायु में ही भारतेंदु जी ने हिंदी को अपनी रचनाओं का अप्रतिम कोष प्रदान किया। किन की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं- 


नाटक-भारतेंदु जी ने मौलिक तथा अनुदित दोनों प्रकार के नाटकों की रचना की है, जो इस प्रकार हैं-


(क) मौलिक- सत्य हरिश्चंद्र, नीलदेवी, श्री चंद्रावली, भारत- दुर्दशा, अंधेर नगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य विषमौधम, सती प्रतापतथा प्रेम जोगिनी


(ख) अनूदित- मुद्राराक्षस,रत्नावली, भारत- जननी , विद्यासुंदर, पाखंड- विडंबन, दुर्लभ बंधु, कर्पूरमंजरी, धनंजय -विजय


निबंध संग्रह- सुलोचना, परिहास-वंचक, मदालसा, दिल्ली- दरबार- दर्पण, लीलावती।


इतिहास- कश्मीर- कुसुम, महाराष्ट्र देश का इतिहास, अग्रवालों की उत्पत्ति।


यात्रा वृतांत- सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा।


जीवनियां- सूरदास की जीवनी, जयदेव, महात्मा मुहम्मद आदि।


भाषा- शैली : भाषा- भारतेंदु जी से पूर्व हिंदी भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं था। भारतेंदु जी ने हिंदी भाषा को स्थायित्व प्रदान किया। उन्होंने इसे जन सामान्य की भाषा बनाने के लिए इसमें प्रचलित तद्भव एवं लोक भाषा के शब्दों का यथासंभव प्रयोग किया। उर्दू फारसी के प्रचलित शब्दों को भी इस में स्थान दिया गया। लोकोक्तियां एवं मुहावरे का प्रयोग करके उन्होंने भाषा के प्रति जनसामान्य में आकर्षण उत्पन्न कर दिया। इस प्रकार भारतीय जी के प्रयासों से हिंदी भाषा सरल सुबोध एवं लोकप्रिय होती चली गई।


शैली- भारतेंदु जी की गद्य शैली व्यवस्थित और सजीव है। इनकी की गद्य शैली पर आधारित वाक्य हृदय की अनुभूतियों से परिपूर्ण लगते हैं। उनमें जटिलता के स्थान पर प्रवाह देखने को मिलता है। भारतेंदु जी ने अग्र लिखित शैलियों का उपयोग किया-


1- वर्णनात्मक शैली- अपने वर्णन प्रधान निबंधों एवं इतिहास ग्रंथों में भारतेंदु जी ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। वाक्यों, लोकोक्तियां एवं मुहावरों से युक्त उनकी वर्णनात्मक शैली की अपनी अलग मौलिकता है।


2- विवरणात्मक शैली- भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने यात्रा संस्मरणों में विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है। उनकी यह शैली कभी तो पूर्ण आभा से मंडित है।


3- भावात्मक शैली- भारतेंदु जी द्वारा रचित जीवनी साहित्य एवं कई नाटकों में भावात्मक शैली का भी प्रयोग किया गया है, जिसमें इनके भाव पक्ष की प्रबलता दृष्टिगोचर होती है।


4- विचारात्मक शैली- 'वैष्णवता और भारतवर्ष ' 'भारतवर्ष उन्नति कैसे हो सकती है?' आदि निबंधों में भारतेंदु जी की विवरणात्मक शैली का परिचय मिलता है। इस शैली पर आधारित रचनाओं में उनके विचारों की गंभीरता एवं विश्लेषण शक्ति के दर्शन होते हैं।


5-व्यंगात्मक शैली- भारतेंदु जी द्वारा रचित निबंधों, नाटकों आदि में यत्र तत्र व्यंगात्मक शैली के दर्शन भी होते हैं।


6- हास्य शैली- भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हास्य शैली में भी रचनाएं की हैं। हास्य शैली में लिखी गई उनकी रचनाओं में 'अंधेर नगरी' 'वैदिकी हिंसा ना भवति'उल्लेखनीय है। के निबंधों में भी यत्र तत्र हास्य शैली का प्रयोग देखने को मिलता है।


इसके अतिरिक्त भारतेंदु हरिश्चंद्र में शोध शैली, भाषण शैली, स्रोत शैली, प्रदर्शन शैली एवं कथा शैली आदि में निबंधों की रचना की है।


हिंदी साहित्य में स्थान- भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी -भाषा और हिंदी -साहित्य के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया । साहित्य के क्षेत्र में उनकी अमूल्य सेवाओं के कारण ही उन्हें 'आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य' का जनक' युग निर्माता साहित्यकार 'अथवा 'आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवर्तक 'कहा जाता है। भारतीय साहित्य में उन्हें युगदृष्टि, युगस्ष्ठता, युग -जागरण के दूत और एक युग-पुरुष के रूप में जाना जाता है।


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